बड़ागांव तीर्थ एवं वहां चातुर्मासरत आचार्यश्री के बारे में की गई पोस्ट के संदर्भ में


बड़ागांव में चातुर्मासरत आचार्य तन्मय सागर जी के साथ हो रहे संवाद को मैंने स्वयं देखकर ही मन का दर्द लिखा था न कि किसी से सुनी-सुनाई बातों को आधार बनाकर। जो बात लिखी थी, वह शत-प्रतिशत घटित थी। ये पोस्ट लिखने का मकसद कमेटी से जुड़े किसी  भी पदाधिकारी पर लांछन लगाना कतई नहीं  था और न ही कभी होगा। मैंने पोस्ट में कमेटी के किसी भी पदाधिकारी के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था।  उसमें लिखा था कि समिति के किसी भी पदाधिकारी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं है और न ही उनकी कोई गलती है, हो सकता है कि उन्हें सही बात की जानकारी ही न हो और जितनी बात वहां की व्यवस्था देख रहे लोगों द्वारा उन्हें जैसा बताया जाता होगा, वे उसे ही मानते होंगे। बेहत उत्साहपूर्ण बात है कि जो कुछ था, अब उसे दूर कर दिया गया है। मेरा मकसद भी मात्र और मात्र यही था। मेरी कई लोगों से बात हुई। इसमें कमेटी के पदाधिकारी सहित कई अन्य लोग भी थे।

एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं कि कमेटी  पदाधिकारी से हुई वार्ता के बाद बेहत खुशी हुई और अच्छा लगा कि उनके मन में आचार्यश्री के प्रति पूरी श्रद्धा और अनंत भक्ति थी। इसके अलावा कुछ अन्य लोगों से भी बात हुई उनके अनुसार आचार्यश्री के व्यवहार और उनकी आदतों से जुड़ी बातें बतायी और यही वजह है कि इनके चातुर्मास की व्यवस्था अन्य कहीं नहीं हो पा रही थी। इसका समाधान कमेटी और हम सभी को मिलकर निकालना चाहिए और इस बारे में अन्य मुनिश्री/आचार्यश्री से बात की जानी जाए कि इसका समाधान क्या हो सकता है क्योंकि तीर्थक्षेत्र पूरे समाज का है। इसलिए किसी को भी व्यक्तिगततौर पर नहीं लेना चाहिए।

बड़ागांव समिति ने यह भी बताया कि किसी भी संत के चातुर्मास की व्यवस्था नहीं हो पाती है तो उनका चातुर्मास यहां करवाया जाता है। ऐसी सोच और अनन्य श्रद्धा-भक्ति काबिलेतारीफ है। जैसे भी हैं है तो जैन संत। एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा कि यदि कहीं कुछ गलत लगा और इसके बारे में लिखा तो उसे पूरी सकारात्मका के साथ उत्साहपूर्ण भाव से लिया जाना चाहिए न कि नकारात्मता और द्वेषपूर्ण भाव से। फिर भी  यदि किसी का भी मन आहत हुआ है, तो मेरा मकसद कतई किसी का मन आहत करने का नहीं था और न है और न होगा।

  • निशेष जैन

 

 

बड़ागांव के प्राचीन श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्या सागर जी महाराज के परम शिष्य बाल ब्रह्यचारी आचार्य श्री तन्मय सागर जी महाराज चातुर्मास कर रहे हैं। दर्शन करने के बाद मैंने देखा कि महाराज जी कुछ देर पहले ही आहारचर्या के लिए गये थे किंतु कुछ ही देर बाद वो वापस मंदिर प्रांगण में आकर आसन पर आकर बैठ गये और कुछ श्रावक लोग उनसे बहस कर रहे हैं।

आचार्यश्री और कुछ श्रावक के बीच बहस मुझे वहां जाने से न रोक सकी तो मैं भी वहां पहुंच गया और श्रावक की जो बातें आचार्य के प्रति सुनी, ऐसी बातें मुझे घर पहुचंने के बाद भी भूलाई नहीं जा पा रही थी। बहस के दौरान लगा कि ये श्रावक जैन थे या नहीं क्योंकि एक श्रावकी कह रही थी “कोई बात नहीं आप दोबारा आहार ले लीजिए अरहर की दाल और रोटी बना देंगे”, तो महाराज जी ने कहा कि मैं कोई भिखारी हूं। यदि ऐसे ही पेट भरना है तो कहीं भी जाकर पेट भर लूगां। उन्होंने कहा कि आप सभी जैन कुल के हैं और यह जानते ही होंगे कि एक बार अंजुली खोल देने के बाद दोबारा आहार नहीं लिया जा सकता। मैं अपने नियम से बंधा हुआ हूं आदि-आदि अनेकों ऐसी बातें जो मैंने पहले कभी नहीं सुनी और देखी।

वहीं उपस्थित एक श्रावकी से पता चला कि इसके एक दिन पूर्व भी महाराज श्री का आहार नहीं हो पाया था। कुछ देर बाद आचार्यश्री से बहस करने के बाद सारे (चार-पांच लोग मात्र) चले गये और आचार्यश्री अकेले अपने आसन पर बैठे रहे, एक श्रावक भी उनके पास नहीं बैठा था। यहां तक कि चौका लगाने वालों के साथ वहां के विद्वानों को यह भी नहीं ज्ञात था कि तन्मय सागर आचार्य हैं या मुनि। मेरा दिल इसलिए आहत नहीं हुआ कि आचार्य की आहारचर्या  नहीं हो पायी, बल्कि इसलिए हुआ कि मैंने श्रावक और आचार्य के बीच ऐसा बेतुका संवाद आज तक नहीं सुना।

ये सब देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं कार्यालय पहुंचा, जहां एक सज्जन बैठे थे, जब मैंने उनसे ये बात कही तो उन्होंने काफी जोर से कहा कि जाओ उस कमरे में प्रबंधक जी बैठे हैं उन्हें बताओ। मैं प्रबंधक के कमरे में चला गया। सफेद कुर्ता-पाजामा पहने प्रबंधक (नाम नहीं जानता) मोबाइल पर लगे पड़े थे। उन्होंने मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, उन्हें आचार्यश्री का आहार हुआ या नहीं उन्हें कोई मतलब नहीं था। मैं मंदिर प्रांगण में मौजूद प्रबंधक और वहां काम करने वालों का ऐसा व्यवहार देख मुझे लगा कि कि इतने बड़े तीर्थक्षेत्र की प्रबंधन समिति शायद ऐसे लोगों के भरोसे मंदिर और चातुर्मास कर रहे आचार्य को छोड़ अपना फर्ज अदा कर रही है।

किसी भी कार्यक्रम में बड़े-बड़े बैनरों पर अपना नाम छपवाने और पैसे के बल पर वह समिति के बड़े पदों पर विराजित हैं। इतने बड़े तीर्थक्षेत्र में एक आचार्य का चातुर्मास करवाकर उनकी अवहेलना होने के लिए वहां की प्रबंधक समिति के लिए बेहद शर्म और लज्जा की बात है। किसी भी संत की अवहेलना से कठोर पाप कर्म का बंध होता है, ये समिति के पदाधिकारियों को पता ही होगा। यदि तीर्थक्षेत्र की समिति तीर्थक्षेत्र में किसी संत का चातुर्मास करवा रही है और उनकी व्यवस्था नहीं कर पाती है तो इससे पुण्य नहीं पाप कर्म का उदय होता है और इससे वे बच नहीं सकते। यदि समिति को संत की व्यवस्था करना भारी पड़ रहा था तो किसी संत का चातुर्मास कराने की क्या आवश्यकता थी। यहां तक कि आहारचर्या के लिए केवल एक चौका लगा था किंतु कम से कम दो चौके अवश्य ही लगने चाहिए और दो चौकों से पड़गाने वाले भी श्रावक होने चाहिए, जिन्हें नवदा भक्ति का ज्ञान हो।

खैर मुझे अच्छा नहीं लगा इसलिए मैं यह लिख रहा हूं। मुझे समिति के किसी भी पदाधिकारी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं, हो सकता है कि उन्हें सही बात की जानकारी ही न हो, जितनी बात मंदिर प्रबंधक बताते होंगे, वे सब उन्हीं पर यकीन कर लेते होंगे। इसलिए मैं समिति के सभी पदाधिकारियों से अनुरोध करूंगा कि चातुर्मास कर रहे आचार्य के लिए कम से कम दो चौके और दो चौकों में पड़गाने हेतु श्रावक की व्यवस्था उनको अवश्य करनी चाहिए।

 

  • निशेष जैन

9811355690


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