श्री दिगम्बर जैन अतिशय तीर्थ क्षेत्र मक्सी पार्श्वनाथ


श्री अतिशय क्षेत्र मक्सी पार्श्वनाथ सेण्ट्रल रेलवे की भोपाल-उज्जैन शाखा पर मक्सी नामक स्टेशन से लगभग तीन कि.मी. दूर है। स्टेशन से लगभग एक फर्लांग दूर दिगम्बर जैन धर्मशाला भी है। क्षेत्र पर दो मंदिर हैं। उज्जैन से यह क्षेत्र ३६ कि.मी. है और इन्दौर से ७२ कि.मी.। क्षेत्र के लिए उज्जैन, इन्दौर, शाजापुर से बराबर बसें मिलती हैं। यहाँ पोस्ट आफिस है। इसका जिला शाजापुर है। गाँव का नाम, जहाँ यह क्षेत्र है, कल्याणपुर है।।

क्षेत्र का इतिहास
इस अतिशय क्षेत्र का उल्लेख भट्टारक सुमतिसागर (सोलहवीं शताब्दी के मध्य में), भट्टारक ज्ञानसागर (सोलहवीं शताब्दी के अन्त में), भट्टारक जयसागर (सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध), भट्टारक ब्रह्महर्ष (सन् १८४३-१८६६) ने अपनी रचनाओं में किया है। इनसे पूर्ववर्ती मदनकीर्ति और आचार्य जिनप्रभ सूरि ने ‘शासन-चतुिंस्त्रशिका’ तथा ‘विविध-तीर्थकल्प’ में इस क्षेत्र का कोई उल्लेख नहीं किया। ये दोनों विद्वान १३ वीं-१४ वीं शताब्दी के हैं। इन दोनों ने ही तत्कालीन प्रसिद्ध तीर्थों के सम्बन्ध में परिचयात्मक प्रकाश डाला है, किन्तु मक्सी पार्श्वनाथ का उल्लेख तक नहीं किया। इससे लगता है कि इस क्षेत्र के अतिशयों की ख्याति इन विद्वानों के काल में नहीं हो पायी थी, जबकि इन दोनों ने ही मालवा के अभिनंदननाथ जिन की स्तुति की है और बताया है कि यवनों द्वारा यह प्रतिमा तोड़ी जाने पर वह पुन: जुड़ गयी और अवयवों सहित वह ठीक हो गयी। उसके पश्चात् उस प्रतिमा में अनेक चमत्कार प्रकट हुए। ‘विविध-तीर्थकल्प’ में तो अवन्तिदेश के इस अभिनंदननाथ जिन की घटना के सम्बन्ध में यह भी बताया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंह देव के शासन-काल से कुछ वर्ष पूर्व में हुई थी।

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मक्सी पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र की स्थापना १४ वीं शताब्दी के पश्चात् कभी हुई है। सम्भवत: पार्श्वनाथ की यह मूर्ति किसी मंदिर में थी। मंदिर को आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया। १४ वीं-१५ वीं शताब्दी में यह मूर्ति भूगर्भ से निकाली गयी है और मंदिर का निर्माण करके उसमें यह विराजमान की गयी। तब से इसके अतिशयों की प्रसिद्धि हुई और यह अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गया। लेकिन सोलहवीं शताब्दी में यह क्षेत्र ख्याति के शिखर पर पहुँच चुका था। भट्टारक ज्ञानसागर ने इस क्षेत्र के संबंध में जैसी प्रशंसा  की है, उससे इस धारणा की पुष्टि होेती है। उन्होंने लिखा है-

‘‘मालवा देश मझार नयर मगसी सुप्रसिद्धह।
महिमा मेरु समान निर्धनकू धन दीधह।
मगसी पारसनाथ सकल संकट भयभंजन।
मनवांछित दातार विघनकोटि मद गंजन।
रोग शोक भय चोर रिपु तिस नामे दूर पले।
ब्रह्म ज्ञानसागर बदति मनवांछित सधलोें फले।।
—सर्वतीर्थ वन्दना—२४

इसमें ज्ञानसागर जी ने मक्सी के पार्श्वनाथ को समस्त संकटों को दूर करने वाला, मनोकामना पूर्ण करने वाला, विघ्नों का हर्ता, रोग-शोक, भय, चोर-शत्रु इनको दूर करने वाला बताया है। अवश्य ही भट्टारक जी के काल में मक्सी के पार्श्वनाथ की प्रसिद्धि इसी रूप में रही होगी।

क्षेत्र दर्शन

श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मक्सी बस्ती के मध्य में अवस्थित है। यहाँ परकोटे के अंदर दो मंदिर और धर्मशालाएँ हैंं। परकोटे के मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर दायीं ओर बड़ा मंदिर (मुख्य मंदिर) है तथा बायीं ओर धर्मशाला बनी हुई है। मंदिर में प्रवेश करने पर सामने एक चबूतरे पर भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। मूर्ति की अवगाहना ३ फुट ६ इंच है। चबूतरा दो फुट ऊँचा है। मूर्ति के नीचे कोई पीठासन नहीं है। मूर्ति के सिरपर सप्त फणावली सुशोभित है। यह मूर्ति अत्यन्त सौम्य, शान्त एवं मनोज्ञ है। मुख पर सहज वीतरागता अंकित है। यह बलुआ पाषाण की है और इसके ऊपर ओपदार पालिश की हुई है। मूर्ति के दर्शन करने पर दृष्टि और मन उसी पर केन्द्रित हो जाते हैं और हृदय भक्ति के सरस भावों से परिपूर्ण हो आता है। यह प्रतिमा भगवान के उस वीतराग रूप की साक्षात् प्रतीक है, जब भगवान अन्तर्बाह्य परिग्रह से रहित होकर पद्मासन मुद्रा में ध्यानावस्थित थे। उनके नेत्र ध्यानावस्था में अर्धोन्मीलित थे, दृष्टि नासा के अग्रभाग पर स्थिर थी और परम शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर अर्हंत परमेष्ठी हुए। अष्ट प्रातिहार्ययुक्त उसी अवस्था की यह मूर्ति है।

प्रतिमा की फणावली के दोनों पाश्र्वों में दो गज हैं। उनमें नीचे दो पुरूष खड़े हैं। बायीं ओर के पुरूष के हाथ में माला है। दायीें ओर के पुरूष के हाथ में कुछ नहीं है। उनसे नीचे दोनों पाश्र्वों में चमरवाहन नागेन्द्र खड़े हुए हैं। ये सभी काली पालिश से रंगे हुए हैं। इन्हें किन्हीं अनाड़ी हाथों ने गढ़ा है। लगता है भगवान् का यह सम्पूर्ण परिकर बाद में निर्मित हुआ है।

इस मूर्ति पर कोई लेख या लांछन नहीं है। सर्पफण-मण्डल के कारण पार्श्वनाथ की पहचान हो जाती है। जब यह प्रतिमा भूगर्भ से निकाली गयी, तब चरण चौकी भूगर्भ में ही दबी रह गयी। अत: यह किस काल में निर्मित हुई, इसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लोग भक्तिवश इसे चतुर्थ काल अर्थात् ईसा पूर्व छटी-सातवीं शताब्दी की कहते हैं। पालिश के कारण इसके पाषाण की भी परीक्षा नहीं हो सकती। साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर देखें तो मदनकीर्ति यतिवर की ‘शासनचतुिंस्त्रशिका’ और ‘विविधतीर्थकल्प’ में या उनसे पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ में इस प्रतिमा की चर्चा नहीं मिलती। सम्भव है, यह परमार काल की रचना हो। यदि यह अनुमान सत्य हो तो यह स्वीकार करना होगा कि अपने प्रारम्भिक काल में यह विशेष प्रसिद्ध नहीं थी।

मूल वेदी के दायें और बायें पाश्र्व में एक-एक वेदी है, जो चबूतरेनुमा है। बायीं ओर की वेदी पर कृष्णवर्ण के पार्श्वनाथ विराजमान हैं। दायीं ओर की वेदी पर नेमिनाथ स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूलत: प्रतिमा श्वेत पाषाण की है, किन्तु किन्हीं लोगों ने काला लेप लगाकर इसे कृष्ण वर्ण की बना दी है। इसके दोनों पाश्र्वों में दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। ये सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाय की हैंं। इस वेदी पर सप्त धातु की चन्द्रप्रभ स्वामी की एक प्रतिमा विराजमान है।

इस मंदिर के सिरदल पर मध्य में नेमिनाथ तथा इधर-उधर खड्गासन दिगम्बर मूर्तियाँ बनी हुई हैं।बड़े मंदिर की पलिमा (परिक्रमा) में ४२ देहरियाँ (छोटे देवालय) बनी हुई हैं। इनमें ४ देहरियाँ खाली खड़ी हुई हैं। इनमें जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विराजमान हैं। सेठ जीवराज पापड़ीवाल एक धर्मात्मा दिगम्बर श्रावक थे। ।’ भट्टारक जिनचंद्र दिगम्बर परम्परा में बलात्कारगण की दिल्ली-जयपुर शाखा के भट्टारक थे। वे भट्टारक शुभचंद्र (सं.१४५०-१५०७) के शिष्य थे। इनका भट्टारक काल संवत् १५०७ से १५७१ तक माना जाता है। आपने अपने जीवन काल में अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी।देहरी नं. ३९ में नन्दीश्वर द्वीप की रचना है। इसमें ५२ प्रतिमाएँ हैं। इनमें ४४ प्रतिमाएँ खड्गासन हैं, शेष पद्मासन हैं और दिगम्बर हैं। नन्दीश्वर द्वीप की यह रचना दिगम्बर परम्परा के अनुसार हैै।

बड़े मंदिर से दक्षिण की ओर इस अहाते में ऊँचे चबूतरे पर छोटा मंदिर है। यह सुपार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर कहलाता है। इस मंदिर में गर्भालय तथा महामण्डप बना हुआ है। गर्भालय में भगवान् सुपार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसकी अवगाहना २ फुट ६ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८९९ में हुई। प्रतिमा चौरस वेदी में विराजमान है।। मूलनायक भगवान् सुपार्श्वनाथ के दोनों पाश्र्वों में महावीर और सुपार्श्वनाथ की मूँगिया वर्ण की पद्मासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। इनकी अवगाहना १ फुट ८ इंच है। इसके आगे की कटनी पर भ.पार्श्वनाथ की १ फुट ४ इंच उन्नत संवत् १५४८ की तथा भ.आदिनाथ की १ फुट २ इंच ऊँची लेखरहित तथा दो धातु मूर्तियाँ एक पार्श्वनाथ २ फुट २ इंच तथा चौबीसी १ फुट ८ इंच विराजमान हैं।

महामण्डप में एक वेदी में भगवान् पार्श्वनाथ की कृष्ण पाषाण की ५ फुट उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यह संवत् २०२५ की प्रतिष्ठित है। इस मंदिर के बराबर में एक छोटा मंदिर है। इसमें तीन दर की एक वेदी है। मध्य में भगवान् पार्श्वनाथ की कृष्ण पाषाण की पद्मासन मूर्ति विराजमान है।

छोटे मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के बगल में क्षेत्र का कार्यालय है। मंदिर के पृष्ठ भाग में धर्मशाला है। मंदिर के आगे चबूतरा है। उस पर क्षेत्र के दक्षिण की ओर सड़क के लिए द्वार बना हुआ है। क्षेत्र के अहाते से पृष्ठ भाग की सड़क मिली हुई है। क्षेत्र के पीछे तालाब बना हुआ है।

इस क्षेत्र में आने पर बहुत सुखद अनुभूति होती हैं .

 — डॉक्टर अरविन्द पी जैन


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