पूर्व नाम : श्री विद्याधरजी

पिता श्री : श्री मल्लप्पाजी अष्टगे (मुनिश्री मल्लिसागरजी)

माता श्री : श्रीमती श्रीमंतीजी (आर्यिकाश्री समयमतिजी)

भाई/बहन : चार भाई, दो बहन

जन्म स्थान : चिक्कोड़ी (ग्राम-सदलगा के पास), बेलगाँव (कर्नाटक)

जन्म तिथि : आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) वि.सं. २००३, १०-१०- १९४६, गुरुवार, रात्रि में १२:३० बजे

जन्म नक्षत्र : उत्तरा भाद्र

शिक्षा : ९वीं मैट्रिक (कन्नड़ भाषा में)

ब्रह्मचर्य व्रत : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, चूलगिरि (खानियाजी), जयपुर

प्रतिमा : सात (आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से)

स्थल : १९६६ में श्रवण बेलगोला, हासन (कर्नाटक)

मुनि दीक्षा स्थल : अजमेर (राजस्थान)

मुनि दीक्षा तिथि : आषाढ़, शुक्ल पंचमी वि.सं., २०२५, ३०-०६- १९६८, रविवार

आचार्य पद तिथि : मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया-वि.सं. २०२९, दिनांक २२-११- १९७२, बुधवार

आचार्य पद स्थल : नसीराबाद (राजस्थान) में, आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने अपना आचार्य पद प्रदान किया।

मातृभाषा : कन्नड़

आरती श्री आचार्य विद्यासागर जी

विद्यासागर की, गुणआगर की, शुभ मंगल दीप सजाय के।

आज उतारूँ आरतिया…..॥1॥

मल्लप्पा श्री, श्रीमती के गर्भ विषैं गुरु आये।

ग्राम सदलगा जन्म लिया है, सबजन मंगल गाये॥

न रागी की, द्वेषी की, शुभ मंगल दीप सजाय के।

गुरु जी सब जन मंगल गाये,

आज उतारूँ आरतिया…..॥2॥

गुरुवर पाँच महाव्रत धारी, आतम ब्रह्म विहारी।

खड्गधार शिवपथ पर चलकर, शिथिलाचार निवारी॥

गृह त्यागी की, वैरागी की, ले दीप सुमन का थाल रे।

गुरुजी शिथिलाचार निवारी,

आज उतारूँ आरतिया…..॥3॥

गुरुवर आज नयन से लखकर, आलौकिक सुख पाया।

भक्ति भाव से आरति करके, फूला नहीं समाया॥

ऐसे मुनिवर को, ऐसे ऋषिवर को, हो वंदन बारम्बार हो।

गुरु जी फूला नहीं समाया,

आज उतारुँ आरतिया…..॥4॥

आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलग्राम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।

आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान है। बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।

विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने , उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।

गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आजतक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।

वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृक्त तपस्वी हैं।

आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलियाँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाग्मी साधु हैं। और हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।

बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।

आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पह्चान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना ददृढवती हो चली। अथ पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ(अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग 1 वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में सन्यम का परिपालन हेतु आपने मत्र पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।

ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज। अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा – सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि मे तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।

गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप, य हो झुलसाती गृष्म की तपन, मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी।

किंतु सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।

Acharya Vidya Sagarji Maharaj was born on 10th October 1946 in  village Sadalga (Karnatka). He was digambar jain by cast. His Father’s name was Shri Malappa Ashtge and mother’s name was Srimati devi.

Acharya Vidyasagarji is a bachelor. He adopted BRAHMACHARYA VRAT by MUNI DESHBUSHAN in early age and MUNI INITIAN on 30.06.1968 at AJMER, RAJASTHAN by ACHARYA GYAN SAGARji.

He adopted the acharya pad, the highest position of jain saint on 22nd November 1972 at Nasirabad , Rajasthan by acharya Gyan Sagarji

He is a very learned man knows the languages – Hindi/ English/ Sanskrit/ Kenned/ Prakrat etc.

Acharya Sri Vidya Sagarji has been a source of inspiration for the construction, development and renovation of Jain temples and Images all over India. Acharya Sri always inspired to invite scholars of eminence to have discourses on different subjects . Acharya Sri has also taken classes to teach his disciples different Granthas.

More than hundred books articles have been written on Acharya Sri 108 Vidya sagarji by eminent scholars and dedicated devotees. Also a number of Cassettes, C.D.,etc. has been released on Acharya Sri Vidya Sagarji. The book, Mook Mati written by Acahrya Sri is the most important subject covered by the research scholars.

गुरु पद पूजन

गुरु गोविन्द से हैं बडे, कहते हैं सब धर्म।

गुरु पूजा तुम नित करो, तज के सारे कर्म॥

पूजन का अवसर आया, वसु द्रव्य से थाल सजाया।

संसार धूप है तपती, गुरु चरण है शीतल छाया॥

हे तपोमूर्ति, हे तपस्वी, हे संयम सूरी यशस्वी।

हे संत शिरोमणि साधक, हे महाकवि, हे मनस्वी॥

मेरे उर मे आ विराजो, श्रद्धा से हमने बुलाया।

॥स्थापना॥

नयन ही गंगा बन गये, अब क्या हम जल को मंगायें।

इन बहते अश्रु से ही, गुरु चरणा तेरे धुलायें॥

अब जन्म जरा मिट जाये, इस जग से जी घबराया।

॥जल॥

शीतल शीतल पगर्तालयाँ, शीतल ही मन की गलियाँ।

शीतल है संघ तुम्हारा, बहे शीतल संयम धारा॥

शीतल हो तप्त ये अंतर, चन्दन है चरण चढाया।

॥चन्दन॥

है, शरद चाँद से उजली, चर्या ये चारू न्यारी।

शशि सम याते ये अक्षत, हम लायें हैं भर के थाली॥

तुम अक्षय सुख अभिलाशी, क्षण भंगुर सुख ठुकराया।

॥अक्षत॥

तपा-तपा के तन को, तप से है पूज्य बनाया।

तन से तनिक न मतलब, आतम ही तुमको भाया॥

हे आत्म निवासी गुरुवर, तुम अरिहंत की छाया।

॥पुष्प॥

हो भूख जिसे चेतन की, षट रस व्यंजन कब भाते।

रूखा-सूखा लेकर वो, शिव पथ पर बढते जाते॥

गुरु सदा तृप्त तुम रहते, हमें क्षुधा ने लिया रुलाया।

॥नैवेद्य॥

जगमग जगमग ये चमके, है रोशनी आतम अन्दर।

हम मिथ्यातम में भटके, हो तुम सिद्धों के अनुचर॥

निज दीप से दीप जला दो, मत करना हमें पराया।

॥दीप॥

वसु कर्म खपाने हेतु ध्यान अग्नि को सुलगाया।

हे शुद्धोपयोगी मुनिवर, मुक्ति का मार्ग दिखाया॥

तुम धन्य-धन्य हो ऋषिवर हमें अघ ने दिया सताया।

॥धूप॥

फल पूजा का हम माँगें तुम उदार बनना गुरुवर।

बस रखना सम्भाल हमको, जब तक ना पाऊँ शिवघर॥

गुरु शिष्य का नाता अमर है, तुमने ही तो बतलाया।

॥फल॥

देवलोक की दौलत इस जमीं पे सारी मंगाए।

हो तो भी अर्घ न पूरा, फिर क्या हम तुम्हें चढाए॥

अब हार के गुरुजी हमने, जीवन ही दिया चढाया।

॥अर्घ॥

बन्धन पंचमकाल है वरना गुरु महान।

पाकर केवलज्ञान को बन जाते भगवान॥

॥जयमाला॥

कंठ रुंधा नयना छलके हैं। अधर कंपित नत पलके हैं॥

कैसे हो गुरु गान तुम्हारा। बहती हो जब अश्रु धारा॥

एक नाम है जग में छाया। विद्यासागर सबको भाया॥

भू से नभ तक जोर से गूंजा। विद्यासागर सम न दूजा॥

नदियाँ सबको जल हैं देतीं। नहीं क्षीर निज गायें पीती॥

बाँटे जग को फल ये तरुवर। ऐसे ही हैं मेरे गुरुवर॥

रहकर पंक में ऊपर रहता। देखो कैसे कमल है खिलता॥

अलिप्त भाव से गुरु भी ऐसे। जग में रहते पंकज जैसे॥

बाहुर्बाल सम खडगासन में। वीर प्रभु सम पद्मासन में॥

कदम उठाकर जब हो चलते। कुन्द-कुन्द से सच हो लगते॥

फसल आपकी महाघनी है। लम्बी संत कतार तनी है॥

व्यापार आपका सीधा सादा। आर्या भी है सबसे ज्यादा॥

कभी आपको नहीं है घाटा। माल खूब है बिकता जाता॥

दुकान देखो बढती जाये। नहीं कभी विश्राम ये पाये॥

जननी केवल जन्म है देती। नहिं वो भव की नैया खेती॥

गुरुजी मांझी बनकर आते। अतः सभी से बडे कहाते॥

मल्लप्पा और मान श्री ही। जिनके आंगन जन्में तुम जी॥

ज्ञान गुरु से लेके दीक्षा। कर दी सार्थक आगम शिक्षा॥

शिष्य जो होवे तुमसा होवे। गुरु का जिससे नाम ये होवे॥

गुरु गौरव बन सच हो चमके। जयकारा सब बोले जम के॥

सौ-सौ जिह्वा मिल भी जायें। युगों-युगों तक वो सब गायें॥

जयमाला हो कभी न पूरी। पूजन रहे सदा अधूरी॥

नाम अमर गुरु का किया विद्यासागर संत। गुरु के भी तुम गुरु बने सदा रहो जयवंत॥

पूजन

परम पूज्य 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के गुरुदेव

परम पूज्य 108 आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज का अर्घ

वैराग्य मूर्ति देख के मन शान्त होता।

जो भेद-ज्ञान स्वयमेव सु जाग जाता।।

विश्वास है वरद हस्त हमें मिला है।

संसार चक्र जिसमें भ्रमता नहीं है।।

ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य ज्ञान सागराय अनर्ध्यपद प्राप्तर्य अर्ध्य नि0 स्वाहा।

परम पूज्य 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

पूजन

श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा।

जिनके जीवन की हर चर्यावन पडी स्वयं ही नवगाथा।।

जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गली-गली।

जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझायी हृदय कली।।

ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर सम्बोषट आव्हानन।अत्र तिष्ठ ठः

ठः स्थापनं।

अत्र मम सन्निहितो भवः भव वषद सन्निध्किरणं।

सांसारिक विषयों में पडकर, मैंने अपने को भरमाया।

इस रागद्वेष की वैतरणी से, अब तक पार नहीं पाया।।

तब विद्या सिन्धु के जल कण से, भव कालुष धोने आया हूँ।

आना जाना मिट जाये मेरा, यह बन्ध काटने आया हूँ।।

जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्व स्वाहा।

क्रोध अनल में जल जल कर, अपना सर्वस्व लुटाया है।

निज शान्त स्वरूप न जान सका, जीवन भर इसे भुलाया है।।

चन्दन सम शीतलता पाने अब, शरण तुम्हारी आया हूँ।

संसार ताप मिट जाये मेरा, चन्दन वन्दन को जाया हूँ।।

संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्व स्वाहा।

जड को न मैंने जड समझा, नहिं अक्षय निधि को पह्चाना।

अपने तो केवल सपने थे, भ्रम और जगत को भटकाना।।

चरणों में अर्पित अक्षय है, अक्षय पद मुझको मिल जाये।

तब ज्ञान अरुण की किरणों से, यह हृदय कमल भी खिल जाये।।

अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्व स्वाहा।इस विषय भोग की मदिरा पी, मैं बना सदा से

मतवाला।

तृष्णा को तृप्त करें जितनी, उतनी बढती इच्छा ज्वाला।।

मैं काम भाव विध्वंस करू, मन सुमन चढाने आया हूँ।

यह मदन विजेता बन ना सकें, यह भाव हृदय से लाया हूँ।।

कामवाण विनाशनाय पुष्पं निर्व स्वाहा।

इस क्षुदा रोग की व्याथा कथा, भव भव में कहता आया हूँ।

अति भक्ष-अभक्ष भखे फिर भी, मन तृप्त नहीं कर पाया हूँ।।

नैवेद्य समर्पित कर के मैं, तृष्णा की भूख मिटाउँगा।

अब और अधिक ना भटक सकूँ, यह अंतर बोध जगाउँगा।।

क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य निर्व स्वाहा।

मोहान्ध्कार से व्याकुल हो, निज को नहीं मैंने पह्चाना।

मैं रागद्वेष में लिप्त रहा, इस हाथ रहा बस पछताना।।

यह दीप समर्पित है मुनिवर, मेरा तम दूर भगा देना।

तुम ज्ञान दीप की बाती से, मम अन्तर दीप जला देना।।

मोहांधकार विनाशनाय दीपम् निर्व स्वाहा।

इस अशुभ कर्म ने घेरा है, मैंने अब तक यह था माना।

बस पाप कर्म तजपुण्य कर्म को, चाह रहा था अपनाना।।

शुभ-अशुभ कर्म सब रिपुदल है, मैं इन्हें जलाने आया हूँ।

इसलिये अब गुरु चरणों में, अब धूप चढाने आया हूँ।।

अष्टकर्म दहनाय धूपम् निर्व स्वाहा।

भोगों को इतना भोगा कि, खुद को ही भोग बना डाला।

साँध्य और साधक का अंतर, मैंने आज मिटा डाला।।

मैं चिंतानन्द में लीन रहूँ, पूजा का यह फल पाना है।

पाना था जिनके द्वारा, वह मिल बैठा मुझे ठिकाना है।।

मोक्षफल प्राप्ताय फलम् निर्व स्वाहा।

जग के वैभव को पाकर मैं, निश दिन कैसा अलमस्त रहा।

चारों गतियों की ठोकर को, खाने में अभ्यस्त रहा।।

मैं हूँ स्वतंत्र ज्ञाता दृष्टा, मेरा पर से क्या नाता है।

कैसे अनर्ध पद जाउँ, यह अरुण भावना भाता हूँ।।

अनर्ध्य पद प्राप्ताय अधर्म निर्व स्वाहा।

जयमाला

हे गुरुवर तेरे गुण गाने, अर्पित है जीवन के क्षण-क्षण।

अर्चन के सुमन समर्पित हैं, हरषाये जगती के कण-कण॥

कर्नाटक के सदलगा ग्राम में, मुनिवर तूने जन्म लिया।

मल्लप्पा पूज्य पिताश्री को, अरुसमय मति कृतकृत्य किया॥

बचपन के इस विद्याधर में, विद्या के सागर उमड़ पड़े।

मुनिराज देशभूषणजी से तुम, व्रत ब्रह्मचर्य ले निकल पड़े॥

आचार्य ज्ञानसागर ने सन्‌, अड़सठ में मुनि पद दे डाला।

अजमेर नगर में हुआ उदित, मानो रवि तम हरने वाला॥

परिवार तुम्हारा सबका सब, जिन पथ पर चलने वाला है।

वह भेद ज्ञान की छैनी से, गिरि कर्म काटने वाला है॥

तुम स्वयं तीर्थ से पावन हो, तुम हो अपने में समयसार।

तुम स्याद्वाद के प्रस्तोता, वाणी-वीणा के मधुर तार॥

तुम कुन्दकुन्द के कुन्दन से, कुन्दन सा जग को कर देने।

तुम निकल पड़े बस इसलिए, भटके अटकों को पथ देने॥

वह मन्द मधुर मुस्कान सदा, चेहरे पर बिखरी रहती है।

वाणी कल्याणी है अनुपम, करुणा के झरने झरते हैं॥

तुममें कैसा सम्मोहन है, यह है कोई जादू-टोना।

जो दर्श तुम्हारे कर जाता, नहीं चाहे कभी विलग होना॥

इस अल्पउम्र में भी तुमने, साहित्य सृजन अति कर डाला।

स्वर ताल छंद मैं क्या जानूँ, केवल भक्ति में रम जाना॥

जैन गीत गागर में तुमने, मानो सागर भर डाला॥

है शब्द नहीं गुण गाने को, गाना भी मेरा अनजाना।

भावों की निर्मल सरिता में, अवगाहन करने आया हूँ।

मेरा सारा दु:ख-दर्द हरो, यह अर्घ भेंटने आया हूँ॥

हे तपो मूर्ति! हे आराधक!, हे योगीश्वर! महासन्त!

है अरुण कामना देख सके, युग-युग तक आगामी बसंत॥

ॐ ह्रीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय अनर्घपद-प्राप्तये पूर्णार्घं नि.

स्वाहा।||पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्‌||

सर्वसिद्धिदायक जाप

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्रीवृषभनाथतीर्थंकराय नमः।

महा अर्घ्य

मैं देव श्री अरहंत पूजूँ, सिद्ध पूजूँ चाव सों ।

आचार्य श्री उवझाय पूजूँ, साधु पूजूँ भाव सों ॥

अरहंत भाषित वैन पूजूँ, द्वादशांग रचे गनी ।

पूजूँ दिगम्बर गुरुचरण, शिवहेत सब आशा हनी ॥

सर्वज्ञ भाषित धर्म दशविधि, दयामय पूजूँ सदा ।

जजि भावना षोडस रत्नत्रय, जा बिना शिव नहिंकदा ॥

त्रैलोक्य के कृत्रिम अकृत्रिम, चैत्य चैत्यालय जजूँ ।

पंचमेरु नन्दीश्वर जिनालय, खचर सुर पूजित भजूँ ॥

कैलाश श्री सम्मेदगिरि गिरनार मैं पूजूँ, सदा ।

चम्पापुरी पावापुरी पुनि और तीरथ सर्वदा ।।

चौबीस श्री जिनराज पूजूँ, बीस क्षेत्र विदेह के ।

नामावली इक सहस वसु जय होय पति शिव गेह के ।।

दोहा

जल गन्धाक्षत पुष्प चुरु, दीप धूप फल लाय ।

सर्व पूज्य पद पूजहू बहू विधि भक्ति बढाय ॥

ऊँ ही भाव पूजा, भाव वन्दना, त्रिकाल पूजा, त्रिकाल वन्दना, करवी,

कराववी, भावना, भाववी श्री अरहंत सिद्वजी, आचार्यजी,

उपाध्यायजी, सर्वसाधुजी पंच परमेष्ठिभ्यो नमः ।

प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चराणानुयोग, द्रव्यानुयोगेभ्यो नमः

दर्शन विशुद्धयादि षोढष कारणेभ्यो नमः ।

उत्तमक्षमदि दशलक्षण धर्मेभ्योः नमः ।

सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक चरित्रेभ्यो नमः ।

जल विषे, थल विषे, आकाश विषे, गुफा विषे, पहाड विषे, नगर-नगरी विषे

उर्ध्वलोक मध्यलोक पाताल लोक विषे विराजमान कृत्रिम अकृत्रिम

जिन चैत्यालय स्थित जिनबिम्बेभ्यो नमः ।

विदेह क्षेत्र विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो नमः ।

पाँच भरत पाँच ऐरावत दसक्षेत्र सम्बन्धी तीस चौबीसी के सात सौ

बीस जिनेन्द्रेभ्यो नमः ।

नन्दीश्वर दीप स्थित बावन जिनचैत्यालयोभ्य नमः ।

पंचमेरु सम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयोभ्यो नमः ।

श्री सम्मैद शिखर, कैलाश गिरी, चम्पापुरी, पावापुर, गिरनार आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः ।

जैन बद्री, मूल बद्री, राजग्रही शत्रुंजय, तारंगा, कुन्डलपुर,

सोनागिरि, ऊन, बड्वानी, मुक्तागिरी, सिद्ववरकूट, नैनागिर आदि तीर्थक्षेत्रेभ्यो नमः।

तीर्थकर पंचकल्याणक तीर्थ क्षेत्रेभ्यो नमः ।

श्री गौतमस्वामी, कुन्दकुन्दाचार्य श्रीचारण ऋद्विधारीसात परम ऋषिभ्यो नमः।

इति उपर्युक्तभ्यः सर्वेभ्यो महा अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।

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