मानवीय संस्कृति के उन्नायक तीर्थंकर ऋषभदेव के जन्म कल्याणक पर प्रासंगिक आलेख

अपनी पुत्रियों को शिक्षा देते ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं उनका  जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ था, वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ। इन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम नाभिराय तथा माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभदेव प्रागैतिहासिक काल के महापुरुष हैं, जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता। किंतु वे आज भी संपूर्ण भारतीयता की स्मृति में पूर्णत: सुरक्षित हैं।ॠग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है। जैन परंपरा और अनेक ऐतिहासिक तथ्य का मानना है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ।

तीर्थंकर ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता माने जाते हैं। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में समागत उनके उल्लेख यह कहने के लिए पर्याप्त हैं कि ऐसे महापुरूष थे जिन्होंने मानव समुदाय को कृषि, लेखन, व्यापार, शिल्प, युद्ध और विद्या की शिक्षा दी। किसी भी व्यक्ति और समुदाय के लिए इन प्रकल्पों की शिक्षायें आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य होती हैं।
प्रतिवर्ष  ऋषभदेव जन्म कल्याणक जैन समुदाय में हर्ष, उल्लास के साथ श्रद्धा पूर्वक मनाया जात है। इस दिन जैनधर्म के आदि प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) का जन्म हुआ था। जैन परम्परा में मान्य चैबीस तीर्थंकरों की श्रृखंला में भगवान ऋषभदेव का नाम प्रथम स्थान पर एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। विश्व के प्राचीनतम लिपिबद्ध धर्म ग्रंथों में से एक वेद में तथा श्रीमद्भागवत इत्यादि में आये भगवान ऋषभदेव के उल्लेख तथा विश्व की लगभग समस्त संस्कृतियों में ऋषभदेव की किसी न किसी रूप में उपस्थिति जैनधर्म की प्राचीनता और भगवान ऋषभदेव की सर्वमान्य स्थिति को व्यक्त करती है।

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों को पुरातत्व विभाग ने ऋषभदेव की मूर्तियां बताया है। भारत के राष्ट्रपति एवं प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ राधाकृष्णन ने अपने भारतीय दर्शन के इतिहास में लिखा है कि “जैन परंपरा ऋषभदेव से अपनी उत्पत्ति का कथन करती है जो बहुत सी शताब्दियों के पूर्व हुए हैं

“। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी ऋषभदेव का नाम आया है।  वैदिक साहित्य में भगवान ऋषभदेव को जैन धर्म का आदि प्रवर्तक माना गया है।  डॉ एन एन बसु ने सिद्ध किया है कि लेखन कला और ब्राह्मी विद्या का आविष्कार ऋषभदेव ने किया था।  विभिन्न  साक्ष्यों द्वारा यह पुष्टि हो जाती है कि ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के प्रथम वरिष्ठ महापुरुष थे। मानवीय गुणों के विकास की सभी सीमाएं ऋषभदेव ने उद्घाटित की ।

जैन परंपरा के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया। अनेकानेक शिल्पों की अवधारणा की। कृषि और उद्योग में अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया। कर्मयोग की वह रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन जीवन में सब ओर नव बंसत खिल उठा। जनता ने अपना स्वामी उन्हेें माना और धीरे-धीरे बदलते हुए समय के अनुसार वर्ण व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था, विवाह आदि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हुआ।

ऋषभदेव ने महिला साक्षरता तथा स्त्री समानता पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। अपनी दोनों पुत्रियों को ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान के साथ साथ व्याकरण, छंद, अलंकार, रूपक, उपमा आदि के साथ स्त्रियोचित अनेक गुणों के ज्ञान से अलंकृत किया।लिपि विद्या को ऋषभदेव ने विशेष रूप से ब्राह्मी को सिखाया। इसी के आधार पर उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपी पड़ गया। ब्राह्मी लिपी विश्व की आद्य लिपी है। दूसरी पुत्री सुंदरी को अंकगणतीय ज्ञान से पुरस्कृत किया। आज भी उनके द्वार निर्मित व्याकरणशास्त्र तथा गणितिय सिद्धांतो ने महानतम ग्रंथों में स्थान प्राप्त किया है।

तीर्थंकर ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति के लिए जो अवदान दिया वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसे जैन ही नहीं जैनेतर भारतीय परंपरा में आज भी कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करती है और युगों तक करती रहेगी। भगवान ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति को जो कुछ दिया है उसमें असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों के द्वारा जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया वहीं अहिंसा, संयम, तप तथा त्याग के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को  भी जगाया।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने जीवन के समग्र विकास के लिए समाज को समुन्नत नवीन अचार संहिता दी।  सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए तीर्थंकर ऋषभदेव ने कहा कि व्यक्ति दूसरे के सहारे की अपेक्षा ना करके स्वयं मर्यादित एवं कर्तव्य परायण बने । इस मर्यादा व कर्तव्य परायणता के लिए उन्होंने पांच व्रतों की व्याख्या की । अहिंसा और सत्य द्वारा वाणी के प्रयोग में स्वयं मर्यादित बने तथा समस्याओं की सच्चाई तक पहुंचकर स्वयं समाधान खोजें। अचौर्य के द्वारा सादा- सरल जीवन  जिएं। ब्रह्मचर्यके द्वारा वासनाओं से मुक्त हों। अपरिग्रह द्वारा लोभ का संवरण करें।

भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है।     तीर्थंकर ऋषभदेव अध्यात्म विद्या के भी जनक रहे हैं। आज मानवता के सम्मुख भौतिकवादी चुनौतियों के कारण नाना प्रकार के सामाजिक एवं मानसिक तनाव तथा संकट व्यक्तिगत, सामाजिक एवं भूमण्डल स्तर पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। भगवान ऋषभदेव द्वारा बताई गई जीवन शैली की हमारी सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में काफी प्रासंगिकता एवं महत्ता है। उनके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी झलकियां मिलती हैं जिन्हें रेखांकित करके हम अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं।

जैन संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन एवं श्रमण एवं वैदिक वाङ्गमय में तो हुआ ही है, कला में भी उनका उल्लेख प्राचीनकाल से होता आया है। ऋषभदेव की प्राचीनतम मूर्तियां कुषाणकाल और चौसा से मिली हैं। ऋषभदेव की गुप्तकालीन मूर्तियां मथुरा, चौसा एवं अकोटा से मिली हैं। ऋषभदेव की सर्वाधिक मूर्तियां उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में उत्कीर्ण हुई हैं। मुख्यरूप से मथुरा, कुंडलपुर, लखनऊ, नवागढ़, ग्वालियर, खजुराहो, गोलाकोट, बूढ़ी चंदेरी, शहडोल, गुना आदि स्थानों की ऋषभदेव प्रतिमाएं मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। बिहार, उड़ीसा और बंगाल में भी अनेक महत्वपूर्ण मूर्तियां प्राप्त होती हैं।

जैन भक्ति साहित्य में  भगवान ऋषभदेव की भक्ति सर्वप्रथम की जाती है। उनकी भक्ति में स्वतंत्र रूप से काव्य, पुराण, स्तोत्र, पूजाएँ आदि बड़ी मात्रा में लिखे गए हैं। सातवीं शताब्दी में मुनिराज मानतुंग आचार्य ने भक्तामर स्तोत्र द्वारा भगवान ऋषभदेव का महान महत्वशील स्तवन भक्ति की है  आज जन-जन इससे विदित है।

भगवान ऋषभदेव के समतामूलक आचार- -विचार -व्यवहार ने भारतीय मनीषा को बहुत प्रभावित किया है।  इस समतामय आचार- -विचार -व्यवहार में प्राणी मात्र का कल्याण निहित है।  समत्व की पहली सीढ़ी अहिंसा है। समस्त प्राणियों के साथ सद- व्यवहार एवं  स्व-  के विचारों का परिष्कार, आविष्कार ही अहिंसा है । “आत्मवत सर्वभूतेषु” का आचरण क्रिया- कर्म हमारे जीवन में उद्घाटित हो जाएं तो हिंसा,  असत्य, चोरी, क्रोध, लोभ, भय, मान, ईर्ष्या,  छल, कपट, वैमनस्य, विषमता इत्यादि प्रवृतियां हमारे जीवन में समाहित हो ही नहीं सकती।

 

-डॉ. सुनील जैन संचय


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