समस्त अर्घ्यावली – Samast Arghawali


1. देव-शास्त्र-गुरु का अर्घ्य
जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ |
वर धूप निर्मल फल विविध, बहु जनम के पातक हरूँ ||
इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूँ |
अरिहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निर्ग्रंथ नित पूजा रचूँ ||
वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन |
जा सों पूजूं परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

2. विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है |
गणधर इन्द्रन हू तैं, थुति पूरी न करी है ||
‘द्यानत’ सेवक जान के (हो) जग तें लेहु निकार |
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह-मँझार |
श्री जिनराज हो, भवतारण-तरण जहाज,श्री महाराज हो ||
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अथवा
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन अनंतवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चंद्रानन भद्रबाहु-भुजंग-र्इश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्येति विंशति विहरमान तीर्थंकरेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

3. कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्घ्य
कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान् |
वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान् ||
सद्गंधाक्षत-पुष्पदामचरुकै: सद्दीपधूपै: फलै: |
नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये ||
ॐ ह्रीं श्री त्रिलोकसंबंधि कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

4. सिद्धपरमेष्ठी का अर्घ्य (संस्कृत)
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणै: संगं वरं चन्दनम् |
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् ||
धूपं गंधयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये |
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाँछितम् ||
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

5. सिद्धपरमेष्ठी का अर्घ्य (भाषा)
जल फल वसु वृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा |
मेटो भवफंदा सब दु:खदंदा, ‘हीराचंदा’ तुम वंदा ||
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवन नामी, अंतरयामी अभिरामी |
शिवपुर विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी शिरनामी ||
ॐ ह्रीं श्रीअनाहतपराक्रमाय सर्वकर्मविनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा ।

6. समुच्चय-चौबीसी का अर्घ्य
जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करूं |
तुमको अरपूं भवतार, भव तरि मोक्ष वरूं ||
चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही |
पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्ष मही ||
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि-वीरांत-चतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्योऽनर्य् पद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

7.श्री आदिनाथ-जिनेन्द्र
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हरषाय |
दीप धूप फल अर्घ सु लेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ||
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन-वच-काय |
हो करुणानिधि भव दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु पाय ||
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

8. श्री अजितनाथ-जिनेन्द्र
जल फल सब सज्जै बाजत बज्जै, गुन-गन रज्जै मन भज्जै |
तुअ पद जुग मज्जै सज्जन जज्जै, ते भव-भज्जै निज कज्जै ||
श्री अजित-जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं |
मनवाँछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजूं ख्याता जग्गेशं ||
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

9. श्री संभवनाथ-जिनेन्द्र
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप फल अर्घ किया |
तुमको अरपूं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ||
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे |
निजि निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे ||
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

10. श्री अभिनंदननाथ-जिनेन्द्र
अष्ट-द्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही |
नचत रचत जजूं चरन जुग, नाय-नाय सुभाल ही ||
कलुष ताप निकंद श्रीअभिनंद, अनुपम चंद हैं |
पद वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद फंद निकंद हैं ||
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदनजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

11. श्री सुमतिनाथ-जिनेन्द्र
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल सकल मिलाय |
नाचि राचि शिरनाय समर्चूं, जय-जय जय-जय जय जिनराय ||
हरि-हर वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय |
तुम पद पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ||
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

12. श्री पद्मप्रभ-जिनेन्द्र
जल-फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति-भाव उमगाय |
जजूं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय |
पूजूं भाव सों, श्रीपदमनाथ-पद सार, पूजूं भाव सों |
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

13. श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र
आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय ||
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो ||
तुम पद पूजूं मन-वच-काय, देव सुपारस शिवपुर राय |
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो ||
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

14. श्री चंद्रप्रभ-जिनेन्द्र
सजि आठों द्रव्य पुनीत, आठों अंग नमूं |
पूजूं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमूँ ||
श्री चंद्रनाथ दुतिचंद, चरनन चंद लसें |
मन-वच-तन जजत अमंद, आतम जोति जसे ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभस्वामिने अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

15. श्री पुष्पदंत-जिनेन्द्र
जल फल सकल मिलाय मनोहर, मन-वच-तन हुलसाय ||
तुम-पद पूजूं प्रीति लायके, जय जय त्रिभुवनराय ||
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदंत जिनराय, मेरी अरज सुनीजे ||
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदन्त-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

16. श्री शीतलनाथ-जिनेन्द्र
शुभ श्रीफलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे |
नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ||
रागादि-दोष मल मर्द्न हेतु येवा,
चर्चूं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा |
ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

17. श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्र
जल मलय तंदुल सुमन चरु अरु दीप धूप फलावली |
करि अरघ चरचूं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ||
श्रेयांसनाथ जिनंद त्रिभुवन वंद आनंदकंद हैं |
दु:खदंद-फंद निकंद पूरनचंद जोति-अमंद हैं ||
ॐ ह्रीं श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

18. श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्र
जल-फल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमार्इ |
शिव पदराज हेत हे श्रीपति! निकट धरूं यह लार्इ ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आर्इ |
बाल-ब्रह्मचारी लखि जिनको, शिव-तिय सनमुख धार्इ ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

19. श्री विमलनाथ-जिनेन्द्र
आठों दरब संवार, मन-सुखदायक पावने |
जजूं अरघ भर-थार, विमल विमल शिवतिय रमण ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

20. श्री अनंतनाथ-जिनेन्द्र
शुचि नीर चंदन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरूं |
अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर-जोर-जुग विनति करूं |
जग-पूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनो |
शिव कंत वंत मंहत ध्याऊँ, भ्रंत वंत नशावनो ||
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

21. श्री धर्मनाथ-जिनेन्द्र
आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगार्इ |
बाजत दृम-दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता-थेर्इ थार्इ ||
परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी |
पूजूं पाय गाय गुन सुन्दर, नाचूं दे दे तारी |
ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

22. श्री शांतिनाथ-जिनेन्द्र
जल फलादि वसु द्रव्य संवारे, अर्घ चढ़ाये मंगल गाय |
‘बखत-रतन’ के तुम ही साहिब, दीज्यो शिवपुर राज कराय ||
शांतिनाथ पंचम चक्रेश्वर, द्वादश मदन तनो पद पाय |
तिन के चरण कमल के पूजे, रोग शोक दु:ख दारिद जाय ||
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

23.श्री कुंथुनाथ-जिनेन्द्र
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी |
फल-जुत जजन करूं मन-सुख धरि, हरो जगत् फेरी ||
कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी |
भव-सिन्धु पर्यो हो नाथ, निकारो बाँह-पकर मेरी ||
ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

24. श्री अरहनाथ-जिनेन्द्र
शुचि स्वच्छ पटीरं, गंध-गहीरं, तंदुल-शीरं पुष्प चरुँ |
वर दीपं धूपं, आनंद रूपं, ले फल भूपं अर्घ करूँ |
प्रभु दीनदयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालम् |
हनि मम जंजालं, हे जगपालं, अर-गुनमालं वरभालम् |
ॐ ह्रीं श्री अरहनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

25. श्री मल्लिनाथ-जिनेन्द्र
जल-फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजूं भगति बढ़ार्इ |
शिवपद-राज हेत हे श्रीधर, शरन गही मैं आर्इ |
राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा |
या तें शरन गही जगपति जी, वेगि हरो भवपीरा |
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

26. श्री मुनिसुव्रत-जिनेन्द्र
जल गंध आदि मिलाय आठों, दरब अरघ सजूं वरूं |
पूजूं चरन रज भगति जुत, जा तें जगत् सागर तरूं ||
शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं |
तसु चरन आनंद भरन तारन, तरन विरद विशाल हैं ||
ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रत-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

27. श्री नमिनाथ-जिनेन्द्र
जल-फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भवभय हरं ।।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के ।।
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

28. श्री नेमिनाथ-जिनेन्द्र
जल-फल आदि साजि शुचि लीने, आठों दरब मिलाय |
अष्टम छिति के राज करन को, जजूं अंग-वसु नाय ||
दाता मोक्ष के, श्री नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्ष के ||
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

29. श्री पार्श्वनाथ-जिनेन्द्र
नीर गन्ध अक्षतान् पुष्प चारु लीजिये |
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजिये ||
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

30. श्री महावीर-जिनेन्द्र
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरूं |
गुण गाऊँ भव दधितार, पूजत पाप हरूं ||
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति दायक हो ||
ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

31. सोलहकारण-भावना का अर्घ्य
जल फल आठों दरब चढ़ाय, ‘द्यानत’ वरत करूं मन लाय |
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ||
दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ||
ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादि षोडशकारणेभ्योऽनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

32. पंचमेरु-जिनालयों का अर्घ्य
आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत’ पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री सुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालि-पंचमेरु-सम्बन्धि अशीति जिन-चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

33. नंदीश्वरद्वीप-जिनालयों का अर्घ्य
यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अर्पतु हूँ |
‘द्यानत’ कीज्यो शिव-खेत, भूमि समर्पतु हूँ ||
नंदीश्वर श्रीजिनधाम बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
नंदीश्वरद्वीप महान्, चारों दिशि सोहें |
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें ||
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

34. दशलक्षण-धर्म-अर्घ्य
आठों दरब सम्हार, ‘द्यानत’ अधिक उछाह सों |
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजूं सदा ||
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

35. श्री सम्यक् रत्नत्रय-अर्घ्य
आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये |
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूँ ||
ॐ ह्रीं श्री सम्यक् रत्नत्रयाय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

36. सप्तर्षि-अर्घ्य
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना |
फल ललित आठों द्रव्य-मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ||
मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता किये पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री श्रीमन्वादि सप्तर्षिभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

37. श्री चौबीस-तीर्थंकर निर्वाणक्षेत्र अर्घ्य
जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरूं |
‘द्यानत’ करो निरभय जगत् सों, जोड़ि कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को ||
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

38. पाँच बालयति अर्घ्य

सजि वसु-विधि द्रव्य मनोज्ञ, अरघ बनावत हैं |
वसु-कर्म अनादि-संयोग, ताहि नशावत हैं ||
श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अती |
नमूँ मन-वच-तन धरि प्रेम, पाँचों बालयती ||
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीरस्वामी पंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

39. नव-ग्रह-अरिष्ट-निवारक अर्घ्य
जल गंध सुमन अखंड तंदुल, चरु सुदीप सुधूपकं |
फल आदि प्रासुक द्रव्य मिश्रित, अर्घ देय अनूपकं ||
रवि सोम भूमिज सौम्य गुरु कवि, शनि तमोसुत केतवे |
पूजिये चौबीस जिन, ग्रहारिष्ट-नाशन हेतवे ||
ॐ ह्रीं श्री सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

40. श्री ऋषि-मंडल अर्घ्य
जल-फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ सुन्दर कर लिया |
संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय, रोग-शोक-सर्वसंकट-हराय सर्वशान्ति-पुष्टि कराय श्रीवृषभादिचौबीस-तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अरहंतादि-पंचपद, दर्शन ज्ञान-चारित्र, चतुर्णिकाय-देव, चार प्रकार अवधिधारक-श्रमण, अष्ट-ऋद्धि-युक्त ऋषि, चौबीस देवी, तीन ह्रीं, अर्हंत-बिम्ब, दसदिग्पाल इति यन्त्र-सम्बन्धि-देव-देवी सेविताय परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

41. सरस्वती-माता का अर्घ्य
जल चंदन अक्षत, फूल चरू अरु, दीप धूप अति फल लावे |
पूजा को ठानत, जो तुहि जानत, सो नर ‘द्यानत’ सुख पावे ||
तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमर्इ |
सो जिनवर-वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भर्इ ||
ॐ ह्रीं श्री जिन-मुखोद्भूत-सरस्वतीदेव्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

42. श्री बाहुबली-स्वामी का अर्घ्य
आठ दरब कर से फैलायो, अर्घ बनाय तुम्हें हि चढ़ायो |
मेरो आवागमन मिटाव, दाता मोक्ष के |
श्री बाहुबली जिनराज दाता मोक्ष के ||
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।


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