Home Jain Grantha Jinvani संकट मोचन विनती – वृन्दावनदास |

संकट मोचन विनती – वृन्दावनदास |

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हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||
मालिक हो दो जहान के जिनराज आपही |
एबो-हुनर हमारा कुछ तुमसे छिपा नहीं ||
बेजान में गुनाह मुझसे बन गया सही |
ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१||

दु:ख-दर्द दिल का आपसे जिसने कहा सही |
मुश्किल कहर से बहर किया है भुजा गही ||
जस वेद औ’ पुरान में प्रमान है यही |
आनंदकंद श्री जिनेंद्र देव है तुही ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२||

हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सती |
गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती ।।
उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती |
भय टार के उबार लिया हे कृपापती ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||३||

पावक-प्रचंड कुंड में उमंड जब रहा |
सीता से शपथ लेने को तब राम ने कहा ||
तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहाँ |
तत्काल ही सर-स्वच्छ हुआ कमल लहलहा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||४||

जब चीर द्रोपदी का दु:शासन ने था गहा |
सब ही सभा के लोग थे कहते हहा-हहा ||
उस वक्त भीर-पीर में तुमने करी सहा |
परदा ढँका सती का सुजस जगत् में रहा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||५||

श्रीपाल को सागर-विषे जब सेठ गिराया |
उनकी रमा से रमने को वो बेहया आया ||
उस वक्त के संकट में सती तुम को जो ध्याया |
दु:ख-दंद-फंद मेट के आंनद बढ़ाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||६||

हरिषेण की माता को जहाँ सौत सताया |
रथ जैन का तेरा चले पीछे यों बताया ||
उस वक्त के अनशन में सती तुम को जो ध्याया |
चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन का चलाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||7||

सम्यक्त्व-शुद्ध शीलवती चंदना सती |
जिसके नगीच लगती थी जाहिर रती-रती ||
बेडी़ में पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हती |
तब वीर धीर ने हरी दु:ख-दंद की गती ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||८||

जब अंजना-सती को हुआ गर्भ उजारा |
तब सास ने कलंक लगा घर से निकारा ||
वन-वर्ग के उपसर्ग में तब तुमको चितारा |
प्रभु-भक्त व्यक्त जानि के भय देव निवारा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||९||

सोमा से कहा जो तूँ सती शील विशाला |
तो कुंभ तें निकाल भला नाग जु काला ||
उस वक्त तुम्हें ध्याय के सति हाथ जब डाला |
तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१०||

जब कुष्ठ-रोग था हुआ श्रीपाल राज को |
मैना सती तब आपकी पूजा इलाज को ||
तत्काल ही सुंदर किया श्रीपालराज को |
वह राजरोग भाग गया मुक्त राज को ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||११||

जब सेठ सुदर्शन को मृषा-दोष लगाया |
रानी के कहे भूप ने सूली पे चढ़ाया ||
उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज-ध्यान में ध्याया |
सूली से उतार उसको सिंहासन पे बिठाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१२||

जब सेठ सु धन्ना जी को वापी में गिराया |
ऊपर से दुष्ट फिर उसे वह मारने आया ||
उस वक्त तुम्हें सेठ ने दिल अपने में ध्याया |
तत्काल ही जंजाल से तब उसको बचाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१३||

इक सेठ के घर में किया दारिद्र ने डेरा |
भोजन का ठिकाना भी न था साँझ-सबेरा ||
उस वक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यान में घेरा |
घर उस के में तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१४||

बलि वाद में मुनिराज सों जब पार न पाया |
तब रात को तलवार ले शठ मारने आया ||
मुनिराज ने निज-ध्यान में मन लीन लगाया |
उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहाँ देव बचाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१५||

जब राम ने हनुमंत को गढ़-लंक पठाया |
सीता की खबर लेने को सह-सैन्य सिधाया ||
मग बीच दो मुनिराज की लख आग में काया |
झट वारि-मूसलधार से उपसर्ग मिटाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१६||

जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा |
घेरे में पड़ा था वह वज्रकर्ण विचारा ||
उस वक्त तुम्हें प्रेम से संकट में चितारा |
प्रभु वीर ने सब दु:ख तहाँ तुरत निवारा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१७||

रणपाल कुँवर के पड़ी थी पाँव में बेड़ी |
उस वक्त तुम्हें ध्यान में ध्याया था सबेरी ||
तत्काल ही सुकुमाल की सब झड़ पड़ी बेड़ी |
तुम राजकुँवर की सभी दु:ख-दंद निवेरी ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१८||

जब सेठ के नंदन को डसा नाग जु कारा |
उस वक्त तुम्हें पीर में धर धीर पुकारा। |
तत्काल ही उस बाल का विष भूरि उतारा |
वह जाग उठा सोके मानो सेज सकारा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१९||

मुनि मानतुंग को दर्इ जब भूप ने पीरा |
ताले में किया बंद भरी लोह-जंजीरा ||
मुनि-र्इश ने आदीश की थुति की है गंभीरा |
चक्रेश्वरी तब आनि के झट दूर की पीरा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२०||

शिवकोटि ने हठ था किया समंतभद्र-सों |
शिव-पिंडि की वंदन करो शंको अभद्र-सों ||
उस वक्त ‘स्वयंभू’ रचा गुरु भाव-भद्र-सों |
जिन-चंद्र की प्रतिमा तहाँ प्रगटी सुभद्र सों ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२१||

तोते ने तुम्हें आनि के फल आम चढ़ाया |
मेंढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया ||
तुम दोनों को अभिराम-स्वर्गधाम बसाया |
हम आप से दातार को लख आज ही पाया ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२२||

कपि-श्वान-सिंह-नेवला-अज-बैल बिचारे |
तिर्यंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे ||
इत्यादि को सुर-धाम दे शिवधाम में धारे |
हम आप से दातार को प्रभु आज निहारे ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२३||

तुम ही अनंत-जंतु का भय-भीर निवारा |
वेदो-पुराण में गुरु-गणधर ने उचारा ||
हम आपकी शरनागती में आके पुकारा |
तुम हो प्रत्यक्ष-कल्पवृक्ष इच्छिताकारा ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२४||

प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्ति के दानी |
आनंदकंद-वृंद को हो मुक्त के दानी ||
मोहि दीन जान दीनबंधु पातक भानी |
संसार विषम-खार तार अंतर-जामी ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२५||

करुणानिधान बान को अब क्यों न निहारो |
दानी अनंतदान के दाता हो सँभारो ||
वृषचंद-नंद ‘वृंद’ का उपसर्ग निवारो |
संसार विषम-खार से प्रभु पार उतारो ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२६||


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