Home Jain Grantha Jinvani श्री पार्श्वनाथ-जिन पूजा-‘पुष्पेन्दु’ Shri Parshvanath Jin Pooja ‘Pushpendu’

श्री पार्श्वनाथ-जिन पूजा-‘पुष्पेन्दु’ Shri Parshvanath Jin Pooja ‘Pushpendu’

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हे पार्श्वनाथ! हे अश्वसेन-सुत! करुणासागर तीर्थंकर |

हे सिद्धशिला के अधिनायक! हे ज्ञान-उजागर तीर्थंकर ||

हमने भावुकता में भरकर, तुमको हे नाथ! पुकारा है |

प्रभुवर! गाथा की गंगा से, तुमने कितनों को तारा है ||

हम द्वार तुम्हारे आये हैं, करुणा कर नेक निहारो तो |

मेरे उर के सिंहासन पर, पग धारो नाथ! पधारो तो ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वानम्)

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र!अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:!ठ! (स्थापनं)

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सत्रिधिकरणम्)

(शंभु छन्द)

मैं लाया निर्मल जलधारा, मेरा अंतर निर्मल कर दो |

मेरे अंतर को हे भगवन! शुचि-सरल भावना से भर दो ||

मेरे इस आकुल-अंतर को, दो शीतल सुखमय शांति प्रभो |

अपनी पावन अनुकम्पा से, हर लो मेरी भव-भ्रांति प्रभो ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

प्रभु! पास तुम्हारे आया हूँ, भव-भव संताप सताया हूँ |

तव पद-चर्चन के हेतु प्रभो! मलयागिरि चंदन लाया हूँ ||

अपने पुनीत चरणाम्बुज की, हमको कुछ रेणु प्रदान करो |

हे संकटमोचन तीर्थंकर! मेरे मन के संताप हरो ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

प्रभुवर! क्षणभंगुर वैभव को, तुमने क्षण में ठुकराया है |

निज तेज तपस्या से तुमने, अभिनव अक्षय पद पाया है ||

अक्षय हों मेरे भक्ति भाव, प्रभु पद की अक्षय प्रीति मिले |

अक्षय प्रतीति रवि-किरणों से, प्रभु मेरा मानस-कुंज खिले ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।

यद्यपि शतदल की सुषमा से, मानस-सर शोभा पाता है |

पर उसके रस में फँस मधुकर, अपने प्रिय-प्राण गँवाता है ||

हे नाथ! आपके पद-पंकज, भवसागर पार लगाते हैं |

इस हेतु आपके चरणों में, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हैं ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

व्यंजन के विविध समूह प्रभो! तन की कुछ क्षुधा मिटाते हैं |

चेतन की क्षुधा मिटाने में प्रभु्! ये असफल रह जाते हैं ||

इनके आस्वादन से प्रभु! मैं संतुष्ट नहीं हो पाया हूँ |

इस हेतु आपके चरणों में, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

प्रभु! दीपक की मालाओं से, जग-अंधकार मिट जाता है |

पर अंतर्मन का अंधकार, इनसे न दूर हो पाता है ||

यह दीप सजाकर लाए हैं, इनमें प्रभु! दिव्य प्रकाश भरो |

मेरे मानस-पट पर छाए, अज्ञान-तिमिर का नाश करो ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।

यह धूप सुगन्धित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है |

पर जीवन-अघ की ज्वाला में, ईंधन बनकर जल जाती है ||

प्रभुवर! इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईंधन कर डाले |

हे वीर विजेता कर्मों के! हे मुक्ति-रमा वरने वाले ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

यों तो ऋतुपति ऋतु-फल से, उपवन को भर जाता है |

पर अल्प-अवधि का ही झोंका, उनको निष्फल कर जाता है ||

दो सरस-भक्ति का फल प्रभुवर! जीवन-तरु तभी सफल होगा |

सहजानंद-सुख से भरा हुआ, इस जीवन का प्रतिफल होगा ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूँ |

जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ ||

मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर! आतंक हटाने को |

वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ! चढ़ाने को ||

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

  पंचकल्याणक – अर्घ्यावली

(दोहा)

वामादेवी के गर्भ में, आये दीनानाथ |

चिर-अनाथ जगती हुर्इ, सजग-समोद-सनाथ ||

(गीता छन्द)

अज्ञानमय इस लोक में, आलोक-सा छाने लगा |

होकर मुदित सुरपति नगर में, रत्न बरसाने लगा ||

गर्भस्थ बालक की प्रभा, प्रतिभा प्रकट होने लगी |

नभ से निशा की कालिमा, अभिनव उषा धोने लगी ||

ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१।

द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण वंदनवार |

काशी नगरी में हुआ, पार्श्व-प्रभु अवतार ||

प्राची दिशा के अंग में, नूतन-दिवाकर आ गया |

भविजन जलज विकसित हुए, जग में उजाला छा गया ||

भगवान् के अभिषेक को, जल क्षीरसागर ने दिया |

इन्द्रादि ने है मेरु पर, अभिषेक जिनवर का किया ||

ॐ ह्रीं पौष कृष्णएकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।

निरख अथिर संसार को, गृह-कुटुम्ब सब त्याग |

वन में जा दीक्षा धरी, धारण किया विराग ||

निज-आत्मसुख के स्रोत में, तन्मय प्रभु रहने लगे |

उपसर्ग और परीषहों को, शांति से सहने लगे ||

प्रभु की विहार वनस्थली, तप से पुनीता हो गर्इ |

कपटी कमठ-शठ की कुटिलता, भी विनीता हो गर्इ ||

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३।

आत्मज्योति से हट गये, तम के पटल महान |

प्रकट प्रभाकर-सा हुआ, निर्मल केवलज्ञान ||

देवेन्द्र द्वारा विश्वहित, सम-अवसरण निर्मित हुआ |

समभाव से सबको शरण का, पंथ निर्देशित हुआ ||

था शांति का वातावरण, उसमें न विकृत विकल्प थे |

मानों सभी तब आत्महित के, हेतु कृत-संकल्प थे ||

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिने केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।

युग-युग के भव-भ्रमण से, देकर जग को त्राण |

तीर्थंकर श्री पार्श्व ने, पाया पद-निर्वाण ||

निर्लिप्त, आज नितांत है, चैतन्य कर्म-अभाव से |

है ध्यान-ध्याता-ध्येय का, किंचित् न भेद स्वभाव से||

तव पाद-पद्मों की प्रभु, सेवा सतत पाते रहें |

अक्षय असीमानंद का, अनुराग अपनाते रहें ||

ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

  वंदना-गीत

Vandanā-Gīta

(कव्वाली)

अनादिकाल से कर्मों का मैं सताया हूँ |

इसी से आपके दरबार आज आया हूँ ||

न अपनी भक्ति न गुणगान का भरोसा है |

दयानिधान श्री भगवान् का भरोसा है ||

इक आस लेकर आया हूँ कर्म कटाने के लिये |

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||१||

(गीता छन्द)

जल न चंदन और अक्षत पुष्प भी लाया नहीं |

है नहीं नैवेद्य-दीप अरु धूप-फल पाया नहीं ||

हृदय के टूटे हुए उद्गार केवल साथ हैं |

और कोर्इ भेंट के हित अर्घ्य सजवाया नहीं ||

है यही फल फूल जो समझो चढ़ाने के लिये |

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||२||

माँगना यद्यपि बुरा समझा किया मैं उम्रभर |

किन्तु अब जब माँगने पर बाँधकर आया कमर ||

और फिर सौभाग्य से जब आप-सा दानी मिला |

तो भला फिर माँगने में आज क्यों रक्खूँ कसर ||

प्रार्थना है आप ही जैसा बनाने के लिये |

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||३||

यदि नहीं यह दान देना आपको मंजूर है |

और फिर कुछ माँगने से दास ये मजबूर है ||

किन्तु मुँह माँगा मिलेगा मुझको ये विश्वास है |

क्योंकि लौटाना न इस दरबार का दस्तूर है ||

प्रार्थना है कर्म-बंधन से छुड़ाने के लिए |

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||४||

हो न जब तक माँग पूरी नित्य सेवक आयेगा |

आपके पद-कंज में ‘पुष्पेन्दु’ शीश झुकायेगा ||

है प्रयोजन आपको यद्यपि न भक्ति से मेरी |

किन्तु फिर भी नाथ मेरा तो भला हो जायेगा ||

आपका क्या जायेगा बिगड़ी बनाने के लिये |

भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||५||

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।


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