Home Jainism जैनों की कम होती जनसंख्या के कारण एवं निराकरण के उपाय

जैनों की कम होती जनसंख्या के कारण एवं निराकरण के उपाय

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जैन समाज प्राय: भारत में ही है, अन्य देशों में प्रवासी अवश्य है परंतु निवासी नहीं है, भारत में भी जैनों की जनसंख्या शून्य के बराबर या प्रतिशत में देखें तो 1/2 (आधा) प्रतिशत भी जनगणना के अनुसार नहीं है, जनगणना के अनुसार 45,00,000 जैन थे, जो बहुत कम हैं, इससे अब परिणाम बहुत घातक होंगे, किसी प्रकार की सुनवाई न होगी, यह वर्तमान में भी देखा जा रहा है, जनसंख्या कम

होने के कई कारण हैं/हो सकते हैं, परंतु यहां हम मुख्य कारणों को देखें तो इनमें सबसे बड़ा कारण धर्म-परिवर्तन, अज्ञानता, पलायन, विजातीय- विवाह और इनसे भी बड़ा “अज्ञानता की लज्जा” है, क्योंकि वह बिना किसी कारण के होती है, जैसा कि पूर्व में कहा था कि लज्जा का अर्थ न समझ पाने पर भी लज्जा का भाव होना, अब क्रमशः देखें तो सराक-क्षेत्रों में कई ऐसी जातियां हैं, जो जैन थी परंतु साधनों के अभाव में अन्य धर्मों में प्रवर्त्त होने लगी, पूर्व में अग्रवाल आदि बहुत सी जातियां जैन थीं, परंतु उपदेशाभाव एवं अन्य धर्मों के प्रति आकर्षिकता के कारण अन्य धर्मों में परिवर्तित हो गईं, और अभी भी हो रहीं हैं, इसका निराकरण यह होगा कि जो जातियां दूर हो चुकी हैं या होती जा रही हैं, उस ओर मुनिराजों का जाना एवं प्रवचन-उपदेश आदि के द्वारा पुनः जैन बनाना और जनगणना के कॉलम में जैन भरने के लिए प्रेरित करना, अब अज्ञानता को जानते हैं, अज्ञानता से तात्पर्य है कि कुछ क्रियाओं को सही ढंग से ना करना, जैसे-अपने

नाम के आगे “जैन” ना लगाना, जिनमंदिर आदि से ना जुड़े रहना, निराकरण है कि बड़े शहरों में बहुत से जैन परिवार मंदिरों से नहीं जुड़े होते हैं, उन्हें मंदिर के सदस्यों में जोड़ना, ऐसे व्यक्ति या परिवार को प्रत्येक धार्मिक कार्यक्रमों में निमंत्रण भेजना और धर्म में लगाना, वर्तमान में पलायन और विजातीय विवाह भी बहुत तेजी ले रहा है, जहां तक मुझे लगता है औसतन 10 में से एक परिवार में या तो बहू विजातीय है या बेटी ने विजातीय विवाह किया है, और इसका सबसे बड़ा दोष शिक्षा-पद्धति का है, रहन-सहन का है, पाश्चात्य संस्कृति का है, आज का युवा वर्ग आचार रहित हो गया है, इस कारण यह विजातीय विवाह/पलायन अधिक हो रहा है, इसमें कुछ हद तक माता-पिता की त्रुटि रहती है और कुछ असंयुक्त परिवारों की वजह से हो रहा है, जो अनुचित है, इसका निराकारण यह है कि समाज के व्यक्ति को एकजुट होकर एक प्रण करना होगा कि अधिकतम MASTER के बाद विवाह करा देवें, ज्यादा से ज्यादा 25 वर्ष की आयु में विवाह करा देवें, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, परन्तु आज के बहुत से युवा वर्ग की मानसिकता तो विकृत है ही, साथ ही कल्चर का अंधविश्वास युवाओं के माता-पिता पर भी प्रभाव डाल रहा है, इसमें बदलाव होगा तो इससे कुछ हद तक सुधार आएगा, ज्यादा ऊँचे या साफ शब्दों में केवल अमीर परिवार ही ना देखें, गुणवान देखकर विवाह करा दें, क्योंकि वर्तमान की एक सबसे बड़ी समस्या यह भी है, कि कोई लड़की देना नहीं चाहता, कोई अमीर लड़के ढूँढते हैं, कोई शहर में विवाह चाहते हैं, और लगभग 80 प्रतिशत लड़की वालों के यही हाल हैं, तो उनके लिए समाज में पंच तैयार किये जाएं और उम्र बढ़ती देख उस परिवार के पास जाकर सलाह दें, और कैसे भी विवाह करावें, और इसकी शुरुआत प्रत्येक व्यक्ति स्वयं से करे तो सर्वोत्तम हैं, आप स्वयं मिसाल बनें, फिर दूसरों से कहें, अब एक और महत्वपूर्ण कारण हैं, “लज्जा” जो अधिकतर शहरी जैनों में या शिक्षित जैनों में है, उनका मानना है, हम दो हमारे एक इस प्रकार की बुद्धि कर लेते हैं, कोई समझाए तो कहेंगे, अरे! हम पढ़े लिखे हैं, समाज में लोग क्या कहेंगे, इसीलिए इस संबंध में प्रमाणसागर जी कहते हैं कि हम दो हमारे तीन, महासागर जी कहते हैं हम हम दो हमारे पाँच, और यह कोई लज्जा नहीं और मैंने एक बार अखबार में पढ़ा था कि एक देश ऐसा है

जहां शादी ना करने वाले को नपुंसक कहा जाता है, यहां तात्पर्य शादी ना करने वालों से नहीं अपितु “हम दो हमारे एक” की तुच्छ बुद्धि वालों से है, इसलिए सभी को स्वयं समझना एवं दूसरों को समझाना आवश्यक है, अन्यथा जो हो रहा है सो हम देख रहे हैं, इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण तथ्य है सौहार्दता, सहिष्णुता, आपसी भाईचारे की कमी अक्सर देखी जाती है, जो कथित तत्त्वों में सबसे ज्यादा आवश्यक है, और इसी की सबसे ज्यादा कमी देखी जाती है, देखते भी हैं कि जैन ही जैन का दुश्मन बना बैठा है, जातिवाद, पंथवाद और अब संतवाद के कारण जैन अपनी अस्मिता खोता जा रहा है, और यही फूट, यही विद्वेष सबसे अधिक घातक है, इसके लिए समुचित उपाय अत्यंत आवश्यक है, और आपसी सामंजस्य आवश्यक है, जब कोई त्यौहार आवे, जब विमान, पालकी, रैली आदि का आयोजन हो तो उसमें दिगम्बर, श्वेतांबर, सोनगढ़ पंथ, तारण-तरण, तेरहपंथी, बीसपंथी, स्थानकवासी आदि जो भी हैं, उन सबकी एक साथ शोभायात्रा हो, ताकि लगे कि कोई कार्यक्रम हो रहा है, और आपसी मेलजोल बढ़ाने का भी यही सर्वोत्तम उपाय है, अतः इसकी आवश्यकता समझनी चाहिए और हर जैन व्यक्ति को एक मंच पर लाने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए।

 

— पं.शशांक सिंघई जैन “शास्त्री”


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