Daslakshan Parva 2022: प्रथम दिन (पंचमी )-उत्तम क्षमा (उत्तमखमा)


पर्युषण महापर्व मानव जीव के लिए कल्याणकारी है। किन्तु ये कल्याणकारी तभी होगा जब हम प्रतिदिन पर्युषण महापर्व के उद्देश्य को आत्मसात करेंगे। जब निरंतर अभ्यास होगा तभी हम वर्ष में तीन बार आने वाले पर्युषण महापर्व, दसलक्षण महापर्व एवं वर्षभर मनाए जाने वाले अध्यात्मिक पर्वों को मनाते हुए आत्मकल्याण कर पाएंगे । जैन श्रावक – श्राविकाएं पर्युषण महापर्व के दिनों में विशेष साधना और आराधना करते हैं।

बच्चों को भी पूजा-उपासना-व्रत आदि के साथ ही विभिन्न धार्मिक आयोजनों में प्रतिभागिता करवाते हैं ताकि बच्चों के अवचेतन मन में जिनधर्म के प्रति आस्था और सद्संस्कारों के बीज स्थापित हों और उन्हीं संस्कारों के निरंतर सिंचन से वे बड़े होकर जैनधर्म के उपदेशों का स्वयं पूरे विश्व में प्रचार – प्रसार करें। आगम – शास्त्रों में जो धर्म के उपदेश लिखे हैं उसे जब तक जीवन के हर क्षण में जीने का अभ्यास न हो तब तक हम पूर्णता की ओर अग्रसर नहीं हो सकते।

मैं ऐसा मानती हूँ कि मनुष्य जीवन अत्यंत दुर्लभ है और मनुष्य होकर भी जैन कुल में जन्म होना और जिसके जीवन के हर क्षण में व्यवहार और भावनाओं की हर लहर में जैन धर्म की झलक हो ऐसा विद्वान परिवार मिलना महासौभाग्य है। अत: बचपन से जो जैनधर्म, दर्शन, प्राकृत भाषा, ब्राह्मी लिपि, धर्म के प्रति समर्पण एवं इसके प्रचार-प्रसार की जो घुट्टी माँ-पिताजी द्वारा हम बच्चों को पिलाई गई उसका हम आज भी निरंतर अभ्यास कर रहे हैं।

जीवन एक प्रयोगशाला है । यदि हम अपनी खूबियों और कमियों को पहचान जाएं तो हम अपने आपको ऊँचाइयों पर भी ले जा सकते हैं और अपने आपको गर्त में जाने से बचा भी सकते हैं। हमने साक्षात् क्या प्रयोग किए और उनसे हमने क्या सीखा इस पर आज बात करना आवश्यक है क्योंकि जो अनुभव से सीखता है वो आप तक पहुँचाना अतिमहत्त्वपूर्ण है।

सौभाग्य है कि जैनधर्म के चार तीर्थंकरों की जन्मस्थली बनारस में हम बहन-भाइयों का बचपन बीता। बचपन में आदरणीय पिताजी (राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, जैनदर्शन के विद्वान् प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी) एवं माँ, (आदर्श महिला सम्मान से सम्मानित, ब्राह्मी लिपि, जैनदर्शन की विदुषी डॉ० मुन्नी पुष्पा जैन) के द्वारा किए गए सार्थक प्रयोगों ने हमारे बाल रूप के अवचेतन मन को गहराई से छुआ – : सभी प्रयोगों के विषय में एक लेख में बताना मुश्किल है किन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयोगों का अनुभव हम आप सभी को इस लेख में बताएंगे।

उत्तम क्षमा को धारण करने के लिए कुछ प्रयोग – :

1) विश्व मैत्री प्रार्थना – : हमारे घर में हर दिन की शुरुआत जिनालय दर्शन से होती है। अत: माँ – पिताजी द्वारा जिनेन्द्र देव अभिषेक पाठ, शांतिधारा, भक्तामर,आरती, मेरी भावना आदि पढ़ने का अभ्यास और रोज़ सुबह और शाम “विश्व शांति व समस्त जीवों के लिए मंगल कामना करने की प्रार्थना का अभ्यास प्रतिदिन की दिनचर्या रही है। शाम को प्रतिक्रमण के साथ अपने जिनेन्द्र देव के समक्ष अपने दोषों को कहना क्षमा याचना करना एवं सृष्टि के समस्त जीव-जंतुओं से क्षमा याचना करने का अभ्यास करना। इससे हमने समस्त जीवों के प्रति हमारे मन में करुणा और मैत्री का भाव उत्पन्न हुआ और हमने हर दिन जाने-अनजाने में हुई अपनी भूलों को स्वीकारना तथा क्षमा माँगना सीखा।

2) अनदेखा करना – : जब कोई भी व्यक्ति आपको कुछ बुरा कहे या आपसे मतभेद करे उसे मन से अनदेखा करने का अभ्यास करो स्वयं की शांति के लिए यह आवश्यक है। यदि फिर भी आप अनदेखा नहीं कर पा रहे हो तो सकारात्मक पक्ष की ओर देखने का प्रयास करें और उसको मन से क्षमा करने का अभ्यास करें।

3) स्वयं को क्षमा करें – : यदि आपसे कोई ग़लती हो गई है तो प्रायश्चित करें और दोबारा गलती न करने का संकल्प लें पर कभी भी जीवन भर के लिए हीन भावना मन में न लाएं, हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति अपने साथ-साथ अपने परिवार को भी गर्त में ले जाता है। अपनी ग़लतियों के लिए स्वयं को क्षमा करें और प्रायश्चित करने के बाद सकारात्मक सोच के साथ आगे बड़ें। अपने आपको “उत्तम क्षमा” करना आपके जीवन की आगे की राह को सुगम बनाता है।

3) डॉयरी लेखन – : ज़्यादा लिखना नहीं सीखा था फिर भी पिताजी अपनी डॉयरी में प्रेरक कविता, लघु कहानियाँ, संस्मरण आदि पत्रिकाओं में से देखकर लिखवाते थे ताकि उन शब्द और भावनाओं से हम बच्चों की दोस्ती हो जाए और हम हर बात की गहराई को समझ सकें। बचपन से ही उन्होंने उत्तम क्षमा के प्रयोग करवाएं। उन्होंने कहा कि जब भी हमारा किसी से मतभेद हो तो हम अपनी डॉयरी में उसके नाम के साथ यह लिखें कि “हमने उसे माफ़ किया और ऐसा तब तक करें जब तक उसके प्रति सहृदयता जागृत न। अपनी गलतियों को भी बार-बार लिखने और प्रायश्चित करने से आप स्वयं को क्षमा करते हैं और दोबारा गलती नहीं करते हैं। इस प्रयोग से मन बिल्कुल हल्का महसूस करता है।

4) कठिन कार्य करना – : परिस्थिति वस यदि मन में क्रोध उत्पन्न हो जाए और अपने को शांत न कर पाओ तो जो कार्य सबसे कठिन लगता हो उसे शुरू कर दें ताकि क्रोध की सारी ऊर्जा उस कठिन कार्य को करने में लग जाए और आपका क्रोध शांत होकर सही- ग़लत पहचान सकें।

5) चाबी पर अधिकार – : माँ कहती हैं कि हमारे सुख और दुख दोंनों की चाबी हमारे ही हाथों में हैं। मन से व्यथित होना कई बीमारियों को न्योता देता है अत: यह दृढ़ श्रद्धा रखें कि यदि हम सुखी-दुखी हैं तो वे स्वयं के कर्मों का ही फल है। अत: यदि हम अपने आज के भव को सुधारना चाहते हैं तो हमें अपनी चाबी पर अधिकार रखना होगा और सुख-दुख के क्षणों में मन समता भाव रखना होगा। हमें कर्मों का फल तो भोगना ही है दुख में दूसरे सिर्फ निमित्त बन जाते हैं लेकिन वो दुख देने वाला कर्म भी आने से ही झरता है। अत: हमें स्वयं के कर्म सुधारने का प्रयास करना चाहिए और दूसरे व्यक्ति को उत्तम क्षमा करना चाहिए।

6) “सम” रहने का अभ्यास – : माँ-पिताजी को हमने सिर्फ पूजा-पाठ करते ही नहीं उन्हें धर्ममय जीवन जीते देखा है बचपन से लेकर आज तक हमारे परिवार को अनेकों उपलब्धियां प्राप्त हुईं और संघर्ष का समय भी आया पर हम उपलब्धियों पर आसमान में नहीं उछले और संघर्ष और मुश्किल समय में कभी नहीं डगमगाये। “सम” भाव रखा, समता रखने के इस अभ्यास ने हमें न कभी अहंकारी बनाया और न कभी अवसादी। अत: यदि सुखमय जीवन जीना है तो उत्तम क्षमा धारण करते हुए सम रहना सीखना आवश्यक है।

7) दखलअंदाजी से बचाव – : दूसरों के जीवन में जब हम दखलअंदाजी करते हैं तो हम क्रोध-बैर-मनमुटाव को सहज ही आमंत्रित कर देते हैं। अत: इससे बचना ही अच्छा है। जब हम दूसरों के जीवन में बहुत ज़्यादा दखलअंदाजी करते हैं तो अपना सुख-चैन खो देते हैं इसलिए दूसरों से दोस्ती करो,पारिवारिकता निभाओ, मदद करो पर ज़रूरत से ज़्यादा दखलअंदाजी से बचने का अभ्यास करना चाहिए। हमें अपनी सीमाओं में रहकर ही रिश्ते निभाने चाहिए।

8) सात्विक आहार -: शुद्ध सात्विक शाकाहार ही सर्वोत्तम आहार है और साथ ही जैनधर्म के अनुसार जिस फल-सब्जी आदि में दोष है उसका त्याग का अभ्यास। बचपन से ही मद्य-माँस-मधु आदि के त्याग का संकल्प। यदि आहार शुद्ध है तो मन भी शुद्ध रहता है और मन शुद्ध रहता है तो हम उत्तम क्षमा के समीप रहते हैं और क्रोध-मान-माया-लोभ आदि बुराइयां हमसे कोसों दूर रहतीं हैं। इसलिए यथा सम्भव जैनधर्म के अनुसार सात्विक आहार का निरंतर अभ्यास करना चाहिए।

9) स्वयं पहल करें – : क्षमा माँगने और करने के लिए किसी का इंतज़ार न कयें स्वयं ही पहल करें। यदि क्षमा माँगने पर भी कोई क्षमा करने को तैयार न हो और हमारे क्षमा करने पर भी सामने वाला मनभेद रखे तो भी अपने मन में बार-बार उस क्षमा भावना की आवृत्ति करें क्योंकि आपको सुखी होने का रास्ता स्वयं ही ढूँढ़ना है। हमारे मन साफ़ होना चाहिए तभी उसमें जीवन को सार्थक बनाने की भावना जागृत होगी बस इसका निरंतर अभ्यास आवश्यक है।

10) जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि – : सोच बदलने से सितारे बदल जाते हैं अत: स्वयं को हर पल सकारात्मक बनाने का अभ्यास करना है । कभी-कभी नकारात्मक विचार भी आएंगे पर उन्हें कैसे सकारात्मक बनाना है यह हमारे ऊपर ही निर्भर करता है। जीवन हमारा हम चाहें तो उजाड़ सकते हैं और सकारात्मक सोच के साथ निखार भी सकते हैं।

ये कुछ प्रयोग हैं जो माँ – पिताजी ने करवाए और जिनका हम बचपन से निरन्तर अभ्यास कर रहे हैं। इन प्रयोगों को करने के लिए अलग से समय निकालने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ये अवचेतन मन में स्थित हैं अत: जीवन में स्वयमेव ही होते रहते हैं। हम इन प्रयोगों में कितना खरा उतरे हैं कितना नहीं इस विषय पर फिर कभी चर्चा करेंगे बस ये जान लीजिए कि मनुष्य जब तक अभ्यास के दौर में है तब तक वह जीवन-मरण के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है और उसे स्वयं के मन को साधने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं

जैसे बच्चे चलना सीखते समय डगमगाते हैं फिर बड़े सम्भलकर चलना सिखा देते हैं वैसे ही यदि क्षणभर के लिए भी हमारे डगमगाने की परिस्थिति होती है तो माँ-पिताजी जागृत कर देते हैं और कर्त्तव्यों का बोध कराते हैं। बचपन के इन प्रयोगों से मन खुश रहता है और अभी जीवन के अनुभव के आधार पर नित नए प्रयोग जुड़ते जाते हैं और जीवन को निर्विकल्प बनाने के लिए कई प्रयोगों के माध्यम से उत्तम क्षमा को धारण करने का हमारा अभ्यास निरंतर जारी है।

— डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव


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