|| क्षमावणी-पर्व : परम्परा या प्रासंगिकता ||


भारत जैसे धार्मिक-निष्ठा-प्रधान देश में हर धर्म के कुछ ऐसे पर्व होते हैं, जिनमें अपनी श्रद्धा एवं विवेक के अनुसार धार्मिक-अनुष्ठान आयोजित होते हैं | कुछ तो मात्र व्रत-उपवास एवं पूजा-पाठ आदि पर केन्द्रित होते हैं, तो कुछ आराध्य-इष्टदेव की उपासना पर आधारित होते हैं | जैसे कि नवरात्रों नें शक्तिरूपा मानी गयी देवी के विविधरूपों की आराधना व्रतादि पूर्वक की जाती है, तो इस्लाम के अनुयायी रमजान के महीने में ‘रोजे़’ के रूप में व्रत व नमाज़ के रूप में इष्टदेव की आराधना की जाती है | जैनों के श्वेताम्बर-आम्नाय में भी ‘पर्यूषण-पर्व’ व्रतादि के अनुष्ठान के साथ इष्टदेवों की आराधनापूर्वक ही मनाया जाता है , जिसकी पूर्णता ‘संवत्सरी’ या ‘खमतखामणा’ से की जाती है, जो कि आज के  ‘क्षमावणी’ के आयोजनों से मिलता-जुलता रूप होता है |

दिगम्बर-जैनाम्नाय में ‘भाद्रपद-मास’ के शुक्लपक्ष की पंचमी से लेकर चतुर्दशी तक ‘दसलक्षण-महापर्व’ पूरी निष्ठा एवं समर्पण की भावना के साथ मनाया जाता है | यह पर्व ‘ उत्तम-क्षमा’ नामक धर्मांग से प्रारंभ होता है, एवं प्रतिदिन इसमें एक-एक धर्मांग की आराधना जुड़ती जाती है | यह आराधना की प्रक्रिया पूर्णतः व्यक्ति-केन्द्रित होती है, भले ही इसके आयोजन सामाजिक-स्तर पर किये जाते हों | क्योंकि यह अपने क्रोधादि-विकारों के परित्यागपूर्वक क्षमा आदि धर्मांगों को अंगीकार करने से आत्मिक-शुद्धि की प्रक्रिया होने से आत्मकेन्द्रित-प्रक्रिया है |

जब यह प्रक्रिया पूर्ण होती है, तो अगले दिन अर्थात् भाद्रपद-शुक्ल पूर्णिमा को ‘रत्नत्रय’ ( समीचीन श्रद्धा, समीचीन ज्ञान एवं समीचीन आचरण )की विशेष-आराधना के द्वारा धार्मिक-विधि पूर्ण होती है | और उससे अगले दिन अर्थात् आश्विन-कृष्ण-प्रतिपदा के दिन एक विशेष सामाजिक-आयोजन होता है, जिसे ‘क्षमावणी-पर्व’ की संज्ञा दी गयी है | इस दिन सभी जिनधर्मानुयायी भाई-बहिन परस्पर क्षमायाचना करके आपसी मनो-मालिन्य दूर करके सौहार्द को बढ़ाते हैं |

इस लघु-आलेख का वर्ण्य-विषय यही है।

‘क्षमा’ ‘शिष्टाचार’ नहीं, ‘सदाचार’ है :–

आज के सन्दर्भ में यह तथ्य बहुत गम्भीरता से विचारणीय है | आज हम लोग इस पर्व की मूल-भावना एवं प्रक्रिया को भूलकर इसे एक सामाजिक-शिष्टाचार के रूप में मनाकर औपचारिकता की पूर्ति करने लगे हैं |

इसकारण से यह पर्व, जो कि आत्मिक-विशुद्धि से उत्पन्न ‘सदाचार’ का रूप था; वही आज सदाचार की जगह कोरा ‘शिष्टाचार’ बनकर रह गया है, जिसे आज की अंग्रेजी में ‘फॉर्मल्टी’ शब्द का पर्याय माना जा सकता है | कोई सहीरूप में इस पर्व को मनाना भी चाहे, तो भी उसे युगप्रवाह के कारण इसे मात्र शाब्दिक अभिव्यक्तिरूप शिष्टाचार के रूप में करना ही पड़ता है | अन्यथा यह भय रहता है कि लोग क्या कहेंगे कि “इसने आज के दिन क्षमा भी नहीं माँगी | अरे मिलकर नहीं माँग सकता था, तो फोन कर लेता , या फिर मैसेज़ तो कर ही सकता था |”

आज आधुनिक सूचना- तकनीकि ने हमें एक और रास्ता खोल दिया है कि हम किसी को जानें या नहीं, पर वॉट्सएप- समूह में संदेश प्रेषित कर इसकी औपचारिकता पूरी करने लगे हैं | कुछ अधिक एडवांस सज्जन तो ब्लॉग, ट्विटर, फेसबुक आदि पर अपनी ओर से संदेश भेजकर निश्चिंत हो जाते हैं कि “मैंने तो क्षमा माँग ली, मेरी ओर से इस दिन की औपचारिकता पूरी हो गयी |” किससे माँगी?– यह पता नहीं, किस अपराध की माँगी?– इसका भी उल्लेख तक नहीं; किस भाव से माँगी?– यह भी क्षमावणी के वास्तविक सन्दर्भ में सोचा तक नहीं ; पर हमारी औपचारिकता का निर्वाह तो हो गया |

कोई बहुत सगा हुआ, तो निजी तौर पर फोन करके उसे जता दिया कि “मैं आपको कितना महत्त्व देता हूँ कि फोन करके क्षमा माँग रहा हूँ |” इस प्रक्रिया से हमारे आभिजात्य-शिष्टाचार की औपचारिकता तो पूरी हो रही है, किन्तु क्षमावणी पर्व की जो आत्मा है, वह किसी अज्ञातवास पर चली गयी प्रतीत हो रही है | हम कब गहराई से इस पर्व की सदाचाररूप पवित्रता को आत्मसात् कर सकेंगे और इसे औपचारिकताओं की बेड़ियों से मुक्त कर इसे इसका वास्तविक स्वरूप प्रदान कर सकेंगे?

 क्षमावणी पर्व का वास्तविक अर्थ :–

यह भी बहुत बड़ी विचित्रता है कि अधिकांश सज्जन तो इस शब्द को ही वास्तविक रूप में नहीं जानते हैं | यह क्षमा+वाणी के रूप में समझा जाता है, इसीलिये इसे वाणी तक सीमित कर दिया गया है | बस बोल लिया, और बात खत्म ; आगे कुछ करने की जरूरत ही नहीं बची | न मन से क्षमा करना, और न ही क्षमाभाव के अनुरूप अपने व्यवहार को बदलना |

इसका सही शब्द ‘ क्षमावणी’ है, जिसमें ‘क्षमा’ के साथ ‘वणी’ शब्द का प्रयोग है, जो कि संस्कृत की ‘वण्’ धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ होता है ‘अभिव्यक्त करना’ | अर्थात् हम अपने हृदय में संचित क्षमा के भाव को वाणी एवं जीवनशैली में अभिव्यक्त करें, ताकि हमारा मान विगलित हो और हम सम्बद्ध व्यक्ति के हृदयस्थ क्षोभ को भी दूर कर सकें | यह कार्य तभी संभव है, जबकि क्षमा का भाव हमारे हृदय में इतनी प्रचुर-मात्रा में संचित हो, कि उसे वाणी और जीवनचर्या से वितरित करने में हमें कोई संकोच न हो |  जिस व्यक्ति ने दसलक्षण-महापर्व की आध्यात्मिक-आराधना के द्वारा इतनी क्षमा-भावना अर्जित की हो, क्षमावणी-पर्व के अवसर पर मन से निकलकर वचन एवं काया से अजस्रधारा बनकर हर कलुषता को प्रक्षालित करती हुई प्रवाहित हो सके |

मन-वचन-काय की समवेत-प्रक्रिया:–

आजकल यह मात्र वचन की प्रक्रिया बनकर रह गयी है; जबकि यह वह गंगा है, जो मन के ग्लेशियरों के पिघलने से द्रवित होती है, वचनरूपी गोमुख से प्रकट होती है ,और काय/ क्रिया रूपी स्रोतस्विनी बनकर जीवन को शीतलता प्रदान करती है | किन्तु आज यह बिडंबना को प्राप्त हो रही है| मन के ग्लेशियर सूख गये हैं और जीवनरूपी गंगानदी में मात्र क्षुद्र-स्वार्थों के साथ दिखावे ( दर्शन नहीं ,अपितु प्रदर्शन) के नालों का पानी बह रहा है, तो पतितपावनी गंगा वचनरूपी गोमुख में कैसे दिख सकती है ? अवश्य ही यह कोई मायाजाल है | जब मन में ही क्षमाभाव के शीतलतम ग्लेशियर नहीं हों, कषायों की ग्लोबल-वार्मिंग में मजबूरियों तक सिकुड़कर रह गये हों, तो वाणीरूपी गोमुख में क्षमारूपी गंगा का उद्गम मायाजाल ( छल) नहीं ,तो और क्या कहा जा सकता है? और जीवन के धरातल पर जब यह क्षमा शर्तों के साथ मैली होकर बहती है, तो स्पष्टरूप से उसकी गंध उसमें जलस्रोत बनकर गिरनेवाले कषायरूपी-नालों से से भिन्न नहीं होती है| बस नामकरण ही ‘क्षमावणी रूपी गंगा’ का शेष रह गया है | बाकी न तो जीवन में कषायें कम हो रहीं हैं, और न ही चित्त की कलुषता कहीं घटती दिख रही है|

एकमात्र वाणी में आकर्षक-शब्दों में क्षमा की मंदाकिनी उस वाराणसी के दशाश्वमेध-घाट से बहती दिख रही है, जिसमें लोग श्रद्धा से मुर्दे प्रवाहित करते हैं | ( ज्ञातव्य है कि वाराणसी नगरी जानी तो गंगा के नाम से जाती है, पर उसका नामकरण ‘वरणा’ और ‘असी’ नामक नदियों के नाम पर हुआ है, न कि गंगा के नाम पर | और उसमें दश-अश्वमेध हुये हों या नहीं, किन्तु दुनियाँ भर के मुर्दे लाकर अवश्य बहाये जाते हैं | ताकि गंगा की पवित्रता से मुर्दों की सद्गति हो सके, भले ही जीवितों के लिये वही गंगा प्रदूषण की पर्याय बन जाये |) यही नाम की क्षमावणी हमारे जीवन में शेष रह गयी है | जिसकी हम साल में एक दिन औपचारिकता पूरी कर लेते हैं |

क्या व कैसे किया जाये?–

जैसे जब चेहरे पर गंदगी दिख जाये, तभी मुँह धोना यदि हमारी जीवनशैली है और विवेक की माँग भी है| तो जैसे गंदगी से मुँह गंदा होता है, उसीप्रकार क्रोधादि कषायों से हमारा चित्त भी तो मलिन व प्रदूषित होता है | इसलिये जब क्रोधादि कषाय हों, तभी उनके प्रक्षालन की प्रक्रिया ‘क्षमावणी’ की जानी चाहिये | इसे तिथियों में क्यों बांधा जा रहा है ? क्या क्रोधादि कषायें किसी तिथि-विशेष में करते हैं हम? यदि ये कषायें हमारे जीवन में हर दिन , हर समय चालू हैं, तो कम से कम इनके प्रक्षालन की प्रक्रिया ‘क्षमावणी’ भी  तब तक अनवरतरूप से हमारी  जीवनशैली रहनी चाहिये, जब तक हमारी कषाय करने की बुरी आदत न छूट जाये | नहाना, कपड़े धोना , ब्रश आदि करना, शौच के बाद हाथ धोना इत्यादि कार्य जिसतरह मल-प्रक्षालन की वह प्रक्रिया है, जो न केवल सामाजिक तौर पर अनिवार्य होती है; अपितु पूरी तरह वैज्ञानिक भी है | इसीप्रकार सामाजिक-पर्यावरण की शुद्धि के लिये तो क्षमावणी की प्रक्रिया आवश्यक है ही; मनोविज्ञान की दृष्टि से भी यह तनाव-निवृत्ति एवं उपयोग की विशुद्धि की अनिवार्य आवश्यकता है | यह तिथियों से नहीं, अपितु कषायों के होते ही उनके शमन के लिये तत्काल आवश्यक है | सामाजिकरूप से इसकी अभिव्यक्ति भले ही तिथियों में सीमित रहे, किन्तु निजी तौर पर यह हमारी तब तक दिनचर्या बनकर रहनी चाहिये, जब तक हमारे जीवन से क्रोधादि विकारों की कलुषता दूर नहीं हो जाती है |

आत्मबल को बढ़ाने का पर्व :–

वह व्यक्ति बहुत कायर होता है, जो अपराध करता तो है, पर उसे स्वीकार करने का हौंसला नहीं रखता ; तथा उसे सुधारने का आत्मबल जिसके पास नहीं होता है | वह व्यक्ति वास्तव में बेहद कमजोर व दया का पात्र है | जबकि अपने अपराध को पहिचानकर उसे स्वीकार करने एवं उसके लिये सम्बद्ध व्यक्ति से न केवल क्षमा माँग ले, बल्कि उसे अपनी जीवनशैली से हटाने के लिये कृतसंकल्प होने की हिम्मत विरले जीव ही कर सकते हैं | और जो ऐसा कर पाते हैं, उनकी ही क्षमावणी सार्थक  है | शेष सभी तो मात्र औपचारिकता का निर्वाह करते हैं | उन्हें तो इस शब्द का स्वरूप व अर्थ ही पता नहीं है | मात्र रूढि का निर्वाह वे कर रहे हैं | मेरे इतने दोटूक शब्दों में लिखने के पीछे यही अभिप्राय है कि हम इस पर्व की गरिमा एवं वास्तविकता को पहिचानें, और सफलतापूर्वक इसे जीवन में अपनायें |

हम बिना किसी संकोच के यह स्वीकार करता हूँ कि इस औपचारिकता की पूर्ति आज के समाज में ऐसी अनिवार्य-रूढि बन गयी है कि युगप्रवाह के अनुरूप मैं भी करता हूँ | किन्तु

हमारी नैष्ठिक-चेष्टा यह भी निरन्तर रहनी चाहिए कि वह हमारे जीवन में ‘सदाचार’ रूपी वास्तविकता भी उत्तरोत्तर बने | और एक दिन हम भी इस महापर्व को पूरी तरह अपनी जीवनशैली बना सकूँ |

नीरज जैन, दिलशाद गॉडंन, दिल्ली


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