भारत के प्रथम गणतन्त्र ‘वैशाली’ के कुण्डग्राम में गणनायक राजा सिद्धार्थ व महारानी प्रियकारिणी त्रिशला के घर में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन बालक वर्धमान के रूप में उस पवित्र आत्मा ने जन्म लिया, जिन्हें वीर, अतिवीर, सन्मति और तीर्थंकर भगवान् महावीर नाम से भी जाना गया । ये केवल उनके जन्म से बड़े होने तक के नाम नहीं बल्कि उनकी क्रमशः उजागर होती चारित्रिक उपाधियाँ हैं, जिनसे उनके महान् व्यक्तित्व का परिचय होता है ।
सामान्यतः महावीर शब्द को लोग बाहुबल से आँकते हैं । लेकिन तीर्थंकर महावीर के संदर्भ में ‘महावीर’ होना बाहुबल से केवल बाह्य संसार को जीतना नहीं वरन् स्वयं के आंतरिक संसार को जीतना है । क्योंकि शारीरिक बाहुबल शाश्वत नहीं, बल्कि सीमित होता है तथा समय और उम्र के साथ-साथ ढलता हुआ जन्म-मरण के चक्रव्यूह में झूलता रहता है जबकि आंतरिक (आत्मा का) संसार जीतने वाले को साधन की आवश्यकता ही नहीं होती, वो तो भेद-विज्ञान के माध्यम से देह और आत्मा में भेद करके देह को नश्वर और आत्मा को अजर-अमर मानकर, तप के माध्यम से समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष को प्राप्त करता है ।
तीर्थंकर ‘महावीर’ होना, आत्मा में विकाररूप विद्यमान क्रोध-मान-माया-लोभ रूपी कषायों से अंतरयुद्ध लड़कर, सर्वप्रथम स्वयं पर विजय प्राप्त कर दया-करुणा-प्रेम और क्षमा को स्वयं में विकसित करना है । यह अहिंसक अंतरयुद्ध बिना वीतरागता के संभव नहीं । वीतरागता का अर्थ होता है समस्त राग-द्वेष/आसक्ति आदि का परित्याग । अतः विचार करने पर हम तीर्थंकर महावीर के महा+वीत+रागी होने को भी ‘महावीर’ कहने का आशय ग्रहण कर सकते हैं ।
भगवान् महावीर भले ही जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर हैं, परंतु महावीर के सार्वकालिक, सर्व कल्याणकारी, सर्वोदयी और शाश्वत सिद्धांत उन्हें जनधर्म का प्रणेता प्रस्तुत करते हैं । भगवान् महावीर ने हमें जीवन को वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से जीने की कला सिखलाई, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग उन्होंने स्वयं पर किया और अपने दिव्य अनुभवों को मानव कल्याण हेतु जन-जन तक जनभाषा ‘प्राकृत’ के माध्यम से पहुंचाया । वे जानते थे कि भाषा भावों की अभिव्यक्ति और ज्ञान-प्रचार का साधन है । अतः इसके लिए यदि जनसामान्य के बोलचाल की जनभाषा प्राकृत को माध्यम बनाया जाए तो अत्युत्तम होगा । इससे वे अपने आध्यात्मिक एवं तात्त्विक चिंतन से प्रसूत ज्ञान रुपी अमृत को बिना भेद-भाव के समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुंचा सकते हैं ताकि वे आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर बन सकें, इसीलिए उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा जनभाषा प्राकृत को ही अपने उपदेशों का माध्यम बनाया ।
उन्होंने अनुसंधान किया की प्रारम्भिक तौर पर ऐसी कौन सी आदतें हैं जो मानव के व्यक्तित्व विकास में बाधक है । उन्होंने पाया कि सात ऐसी आदतें और पाँच ऐसे पाप हैं, जो मानव को सम्यक् पथ से भटका रहे हैं, वो हैं – जुआ, मांसाहार, मद्य(शराब आदि नशे का सेवन), वैश्यावृत्ति, शिकार, चोरी तथा परस्त्री सेवन – जिन्हें उन्होंने सप्त व्यसन के रूप में प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि व्यसनी व्यक्ति के जीवन में धर्म नहीं उतर सकता, क्योंकि व्यसन धर्म का शत्रु है । व्यसन एक ऐसी बला है जो व्यक्ति की मानसिक पवित्रता को नष्ट कर उसकी सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक चेतना को विकृत कर देती है और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह जैसे पाँच पापों को परिणाम रूप जन्म देती है । इनसे बचाव हेतु भगवान् महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह – इन पाँच अणुव्रतों के माध्यम से मानव के संतुलित व्यक्तित्व विकास की नींव रखी ।
“अहिंसा परमो धर्मः”- भगवान् महावीर के इस मूलमंत्र के कारण ही भारत को विश्वगुरु की संज्ञा प्राप्त थी । विश्वशांति का संदेश देता ‘जियो और जीने दो’ का उनका संदेश एक ऐसे जीवन दर्शन को प्रस्तुत करता है, जिसमें अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, स्याद्वाद आदि सिद्धान्त विभिन्न दृष्टिकोणों से स्वतः ही समाहित हो जाते है । उनके सभी सिद्धांत नैतिक मूल्यों को दर्शाते हैं । भगवान् महावीर की अहिंसा में ‘भय’ की कोई जगह नहीं, उनकी ‘अहिंसा’ हमें दया, प्रेम, करुणा सिखाती है तो ‘अपरिग्रह’ के द्वारा हमें अनावश्यक परिग्रह न करके अतिआवश्यक सीमित साधनों में संतोषपूर्वक जीवन यापन करने का संदेश मिलता है । वाद-विवाद से रहित सत्य के बहुआयामी दृष्टिकोण के चिंतन को विकसित करने वाले ‘स्याद्वाद’ और ‘अनेकान्तवाद’ हमारे भीतर सहनशीलता, परस्पर सौहार्द्र, सम भाव की भावना को प्रेरित करते है । किन्हीं भी सिद्धांतों में आग्रहवाद की गंध नहीं आती वरन् मैत्री, करुणा और सद्भाव की ख़ुशबू ही आती है । इनके अनुपालन से न केवल जीवों का मुक्ति का मार्ग ही प्रशस्त होता है वरन् सामान्य लोक जीवन भी सुन्दर हो जाता है ।
वर्तमान में जहाँ आज पूरा विश्व कोरोना नामक सूक्ष्म विषाणु के संक्रमण से जूझ रहा है, जिसके आगे बड़े से बड़ा बाहुबल, बड़े से बड़े हथियार भी बौने साबित हो रहे हैं, जिसका एक मात्र बचाव सावधानी ही है । आपकी इम्युनिटी पावर (प्रतिरोधक क्षमता) बढ़ाने की अपील की जा रही है । भौतिकता की आँधी में प्रकृति को दरकिनार कर मानसिक रूप से भी मशीन बन चुके हम लोगों के लिए कोरोना वाइरस एक सबक है । इससे पार पाने के लिए आध्यामिक एवं स्वस्थ्य जीवन शैली ही एकमात्र उपाय है, जो कि भगवान् महावीर के अहिंसा आदि सिद्धांतों को जीवन में अपनाकर तथा स्वयं के आंतरिक महावीर को जगाने से ही प्राप्त होगी । क्योंकि जब तक आत्मा स्वयं को अपूर्ण मानता रहेगा तब तक बाहरी पदार्थों से अपना हित- अहित मानता रहेगा ।
भगवान् महावीर आत्मा की अनंत सामर्थ्य को उजागर करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार कोयले में हीरा तथा पत्थर की शिला में देव प्रतिमा स्वाभाविक रूप से ही विद्यमान है, उसी प्रकार इस आत्मा में भी परमात्मा बनने की सामर्थ्य सहज रूप से ही विद्यमान है, आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम अपनी शक्ति को पहचानें और तदनुरूप आचरण करें । तात्पर्य यह है कि ज्ञान-दर्शन-सुख-बल आदि अनन्त सामर्थ्य से परिपूर्ण यह आत्मा यदि अपनी शक्ति को पहचान कर राग-द्वेष मोहादि विकारी वृत्तियों से मुक्त हो जाये तो यह भी ‘महावीर’ सदृश बनने की पात्रता प्राप्त कर सकेगा ।
भगवान् महावीर की यह स्पष्ट अवधारणा है कि हमारा व्यक्तित्व मात्र कपड़ो या शारीरिक सौंदर्य से ही निर्मित नहीं होता; उसमें हमारा चिंतन, वाणी और व्यवहार तथा आध्यात्मिक दृष्टि भी महत्वपूर्ण घटक है, जो हमारे सही और सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है । वे कहते हैं कि यदि सफल जीवन जीना चाहते हो तो विचारों में ‘अनेकांत’, वाणी में ‘स्याद्वाद’, आचार में ‘अहिंसा’ और जीवन में ‘अपरिग्रह’ – इन चार सूत्रों को अपना जीवन आदर्श बना लो, जिनसे व्यक्ति के एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है, जो स्वयं उसके लिए तो कल्याणकारी होगा ही साथ ही वह परिवार, समाज, राष्ट्र तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए भी कल्याणकारी होगा ।
यदि हम तीर्थंकर महावीर के सिद्धांतों का गहराई अध्ययन करेंगे तो हमें वो अमूल्य सूत्र प्राप्त होंगे जिनसे मानव के व्यक्तित्व का निर्माण होता है । उन्होंने यह माना है कि व्यक्तित्व का आत्मिक विकास सर्वांगीर्ण होना चाहिए । इसके लिए उन्होंने, सम्यक् दर्शन (सही दृष्टि), सम्यक् ज्ञान (सही ज्ञान/निष्ठा) और सम्यक् चरित्र (सही आचरण) – इन रत्नत्रय के माध्यम से व्यक्तित्व विकास की ऐसी नींव रखी, जिसे मानव के मौलिक विकास में सहायक माना गया । सर्वप्रथम व्यक्तित्व का सबसे बड़ा पहलु है कि आपकी दृष्टि कैसी है ? आपका दृष्टिकोण सही होना चाहिए । आपकी दृष्टि और विश्वास से आपकी आपके लक्ष्य के प्रति निष्ठा का पता चलता है । और उसी से निर्धारित होता है कि आपकी सफलता कितनी सुनिश्चित है । यही ‘सम्यग्दर्शन’ है । सही ज्ञान के अभाव में हम लक्ष्य से भटक सकते हैं । लक्ष्य के बारे में हमारे पास सही तथा प्रामाणिक सूचनाएं भी होनी चाहिए । इसीलिए ‘सम्यक् ज्ञान’ बहुत जरूरी है । सही विश्वास/निष्ठा/दृष्टि तथा सही ज्ञान भी हो गया, किन्तु महावीर कहते है कि अभी भी आप पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाए हैं । आप अपने लक्ष्य को तब तक नहीं प्राप्त कर सकते जब तक कि आप सही आचरण को प्राप्त नहीं कर लेते । पथ पर सही तरीके से चलना सही आचरण है । ‘सम्यक् चारित्र’ ही हमारे व्यक्तित्व का अंतिम सोपान है । अतः सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के योग से ही हमारा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा ।
भगवान् महावीर के वैज्ञानिक एवं मानोवैज्ञानिक सिद्धान्त आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पहले थे और भविष्य में भी अनंतकाल रहेंगे । उनके उपदेश मर्मस्पर्शी हैं, जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है । उनके ‘अहिंसा’ सिद्धान्त का अर्थ मात्र हिंसा करना नहीं बल्कि अन्तर्मन में प्रेम, करुणा, दया, क्षमा का उजागर होना है । वे कहते हैं जिस प्रकार ‘अंधकार’ को दूर करने के लिए हम ‘प्रकाश’ करते हैं तो अंधेरा स्वतः ही विलुप्त हो जाता है, उसी प्रकार अंधकार रूपी ‘हिंसा’ से पार पाने के लिए प्रकाश रूपी ‘क्षमा’ को अपनाया जाये तो ‘अहिंसा’ स्वतः ही प्रगट हो जाती है । ‘क्षमा’ के व्यापक स्वरूप को बतलाते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि –
“खामेमी सव्व जीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्व भूएसु, वैरं मज्झं न केणई”
‘अर्थात् मैं सभी जीवमात्र के प्रति क्षमाभाव रखता हूँ, सभी जीव मेरे द्वारा जाने-अनजाने अपराधों को क्षमा करें । सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है । मेरा किसी प्राणिमात्र से कोई वैर नहीं है’ । इस भावना में ‘वसुधैवकुटुम्बकम्” की उक्ति चरितार्थ होती है । यह मंत्र विश्वशांति के लिए प्रकाशस्तम्भ की तरह है । इस प्रकार भगवान् महावीर के सिद्धान्त मात्र सिद्धान्त नहीं अपितु यह प्रत्येक मानव के लिए एक आदर्श नागरिक संहिता है । यदि भगवान् महावीर की इन शिक्षाओं को हम व्यावहारिक जीवन में उतारेंगे तो निश्चित ही एक आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते हैं ।
— डॉ. अरिहन्त कुमार जैन