जैन दर्शन की यह विशेषता हैं की आप अपनी आत्मा का दर्शन और कल्याण करना चाहते हैं उसके लिए आपको पूरा मौका दिया गया हैं। आपको मात्र धर्म और उनके लक्षणों को समझकर पालन करे और भावो में निर्मलता लाना ही मात्र साधन हैं। जिस प्रकार मंदिर जी में मूर्ति के बाजू में जगह खाली रहती हैं ,उसका आशय हैं आप भी भगवान् जैसे बन सकते हैं वह मोक्षमार्ग पर चलना हैं। सत्य धर्म के बाद आज संयम का दिन हैं।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां वधवर्जनम।
समितौ वर्तमानस्य मुनिर्भवति संयमः।।
इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य धारण करना और प्राणियों को हिंसा त्याग करना संयम हैं। यह धर्म समिति में प्रवर्त्तमान मुनि के जब होता हैं तब वह उत्तम संयम कहलाता हैं।
व्रत व समितियों का पालन ,मन ,वचन ,काय की प्रवत्ति का त्याग ,इन्द्रियजय से सब जिसके भाव होते हैं उसके नियम से संयम धर्म होता हैं। जीव रक्षा में तत्पर जो मुनिगमनागमन आदि कार्यों में तृण का भी छेद नहीं करना चाहते हैं उसके संयम धर्म होता हैं।
प्रकार —
१ प्राणी संयम २ इन्द्रिय संयम
१ उपेक्षा संयम २ अपहृत संयम
१ वीतराग संयम २ सराग संयम
१ निश्चय संयम २ व्यवहार संयम
प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम किसे कहते हैं ?
प्राणी संयम — चौदह प्रकार के जीवों (जीवसमास )की रक्षा करना प्रानी संयम हैं एकइंद्रिय आदि प्राणियों का परिहार प्राणी संयम हैं। प्राणी संयम सत्रह प्रकार के होते हैं —
१ पृथिवी २ अप ३ तेज़ ४ वायु ५ वनस्पति ये पांच स्थावर काय और दो ,तीन चार व पांच इन्द्रिय वाले त्रसजीव इनकी रक्षा करना यह नौ प्रकार का प्राणी संयम हैं।
१ अजीवकाय की रक्षा रूप सूखे तृण आदि का छेदन नहीं करना। २ अप्रतिलेखन ३ दुष्प्रतिलेखन ४ उपेक्षा संयम ५ अपहरण संयम ५ मन का संयम ६ वचन का संयम ८ काय का संयम इस प्रकार कुल मिलाकर सत्रह प्रकार का प्राणी संयम हैं।
उपेक्षा संयम — महाज्ञानी और तीनों गुप्तियों को पालन करने वाले महामुनियों के उत्कृष्ट शरीर में बल होने के कारण
जो राग द्वेष का सर्वथा भाव हो जाता हैं उसको उपेक्षा संयम कहते हैं।
संयम में मन ना लगाना उपेक्षा हैं। धर्मोपकारणों को रखकर बहुत दिनों तक उनको ना देखा तो उनमे उतपन्न हुए सम्मूर्च्छरण जीवों को देखकर उपेक्षा व संयमन व निग्रह करना ,प्रतिदिन बार -बार उसे देखना उपेक्षा संयम हैं।
जो चतुर मुनि प्रयत्न पूर्वक संवर को उतपन्न करने वाली पाँचों समितियों का पालन करते हैं उसको अपह्रत संयम कहते हैं
कर्मक्षयोपशम जनित मोक्षमार्ग की रूचि से जिसमे विशुद्धि प्राप्त हुई हैं और जो चित्त रागादि उपद्रव से रहित हैं वह भाव शुद्धि हैं। जिस प्रकार दीवार शुद्ध होने से ही उस पार बनाया हुआ चित्र प्रकाशित होता हैं उसी प्रकार भावशुद्धि होने से ही आचार वा चारित्र प्रकाशित होता हैं।
समस्त आवरण और आभूषण से रहित शरीर संस्कार से शून्य ,यथाजात ,मल को धारण करने वाली ,अंग विकार से रहित और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवत्ति को कायशुद्धि कहते हैं।
यह काय शुद्धि प्रशम -सुख को मूर्तिमान के समान दिखाती हैं। इस काय शुद्धि के होने पर ना तो दूसरों से अपने को भय होता हैं और ना दूसरों को जो संसार में विश्वास उतपन्न करने वाली हैं ,साज -सजावट के समूह से रहित ,क्षमा की मूर्ति के समान सुशोभित होती हैं ,इच्छा से रहित हैं ,वैराग्य रुपी लता की उत्पत्ति की भूमि हैं ,भय से रहित हैं और बालक के समान निर्विकार होने से मनोहर हैं ,वह कायशुद्धि हैं।
लाभ —
1. संयम आत्मा का हित करने वाला हैं।
2. संयमी मानव इस लोक में पूजित होता हैं ,परलोक की तो बात ही क्या हैं ?
3. चारित्र का पालन करने से ध्यानी पुरुषों को समस्त गुणों से विभूषित ऐसा मुक्तिरूपी स्त्री अवश्य प्राप्त हो जाती हैं।
4. संयमसे समस्त कर्मों का संवर होता हैं ,समस्त कर्मों की निर्जरा होती हैं।
5. संयम के साथ –साथ थोड़ा सा किया हुआ तप भी बुद्धिमानों को मोक्षादि की प्राप्ति में महाफल देता हैं ,इसमें कोई संदेह नहीं हैं।
हानि –
इस एक संयम के बिना मनुष्यों के तप ,ध्यान और वृतादिक सब व्यर्थ हो जाते हैं ,सार्थक नहीं होते ,क्योकि बिना संयम के समस्त पापों का आस्रव होता ही हैं। यही समझ कर संवर करने वालों को रत्नत्रय की विशुद्धि के लिए तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए पूर्ण प्रयत्न के साथ इस संयम का पालन करना चाहिए।
संयमी जन निरंतर हिंसादि पापों में तथा पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवत्ति करके अशुभ कर्मों का संचय करते हैं।
संयम का जीवन में बहुत महत्व हैं। लेख के विस्तृत होने के भय से उन सबका वर्णन करना संभव नहीं हैं पर इन्द्रिय संयम ,प्राणी संयम ,उपेक्षा संयम ,अपहृत संयम ,वैयावृत्त्य,भाव शुद्धि ,काय शुद्धि ,,विनय शुद्धि ,ईर्यापथ शुद्धि ,भिक्षा शुद्धि ,गोचर वृत्ति ,आहार चर्या प्रतिष्ठापन शुद्धि ,शयनशान शुद्धि ,वाक्य शुद्धि आदि का बहुत विस्तृत वर्णन है।
काय छहों प्रतिपाल ,पंचेन्द्रिय मन वश करो।
संजम – रतन संभाल , विषय -चोरबहु फिरत हैं।।
उत्तम संजम गहु मन मेरे ,भव- भव के भाजैं अघ तेर।
सुरगनरक पशु गति में नाहीं,आलस हरन करन सुख ठाही। ।
ठाहीं प्रथी,जल ,आग मारुत, रूख त्रस करुणा धरो।
सपरसन रसना घ्रान नैना ,कान मन सब वश करो ।।
जिस बिना नहिं जिनराज सीझे ,तू रुल्यो जग – कीच में।
इक घरी मत बिसरो करो नित ,आव जम -मुख बीच में।।
वास्तव में स्वाध्याय के साथ हम अपनी क्रियाएं सावधानीपूर्वक करे इससे हम स्व को निकटता से जान सकेंगे और हम संयम के द्वारा अनेकों कर्मों की निर्जरा कर सकेंगे। इसलिए ही प्रभु सबके जीवन में संयम धर्म विराजे और आत्म कल्याण कर सके।
उत्तम संयम धर्म की जय हो।
—डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन