उत्तम शौच धर्म (4 Day) – लोभ पाप का बाप हैं


दस लक्षण धर्म में पहले दिन उत्तम क्षमा भाव रखते हुए अपने भावो में निर्मलता लाते हुए अपनी मान कषाय को त्यागते हुए मार्दव धर्म को अंगीकार करते हुए अपने भावो में सरलता का भाव लाना हैं। क्रोध ,मान ,माया रुपी कषायों से मुक्त होते हुए हमें अब जो लोभ रुपी कषाय हैं उससे मुक्त होने के लिए शौच धर्म को अंगीकार करना हैं,अपनाना हैं।

उत्तम शौच धर्म —
प्रकर्ष प्राप्त लोभाननिवृत्तिः।
प्रकर्षप्राप्त लोभ का त्याग करना शौच हैं। चित्त से जो परस्त्री और परधन की अभिलाषा ना करता हुआ षट्काय के जीवों की हिंसा से रहित होता हैं ,इसे ही दुर्भेद्य अभ्यन्तर कलुषता को दूर ओर करने वाला  उत्तम शौच धर्म कहा जाता हैं ,इससे भिन्न दूसरा शौच धर्म नहीं हैं।
आत्यंतिक लोभ की निवृत्ति शौच हैं व शुचि का भाव वा कर्म उत्तम शौच हैं। धनादि वस्तुओं में “ये मेरे हैं “ऐसी अभिलाषा बुद्धि ही सर्व संकटों में मनुष्य को गिराती हैं। इस ममत्व   को हृदय से दूर करना ही लाघव (शौच ) धर्म हैं।
लघु का भाव लाघव हैं ,व्रतों में अतिचार नहीं लगाना इसी का नाम  शौच हैं ,प्रकर्षता को प्राप्त लोभ को दूर करना ही शौच हैं। समस्त पदार्थों में तथा अपने सुखादि में पूर्ण संतोष धारण करना शौच धर्म हैं।
प्रकार —
लोभ चार प्रकार का होता हैं —
1. जीवित  का लोभ

2. आरोग्य का लोभ

3. पंचेन्द्रिय का लोभ

4. भोगोपभोग का लोभ

ये चारो ही लोभ दो -दो प्रकार के होते हैं।
स्वजीवन लोभ—परजीवन लोभ ,स्वारोग्य लोभ -पर आरोग्य लोभ ,स्वइन्द्रिय लोभ -पर इन्द्रिय लोभ ,स्व उपभोग लोभ -पर उपभोग लोभ। अपने जीवन आदि की आकाँक्षां रूप चार प्रकार के लोभ की निवृत्ति लक्षण वाला शौच भी चार प्रकार का जानना।
जो इन्द्रियों को जीतने वाले निर्लोभी हैं ,उन्ही के मोक्ष प्राप्त कराने वाले परमोत्कृष्ट शौचधर्म की प्राप्ति होती हैं ,जिनका हृदय कामवासना में लगा हुआ हैं उनको शौच धर्म की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती हैं।

जो इन्द्रियों को जीतने वाले निर्लोभी हैं ,उन्ही के मोक्ष प्राप्त कराने वाले परमोत्कृष्ट शौच धर्म की प्राप्ति होती हैं ,जिनके ह्रदय कामवासना में लगा हुआ हैं उनको शौच  धर्म की प्राप्ति कभी नहीं होती हैं। जो इन्द्रियासक्ति से रहित हैं ,समस्त पदार्थों से निःस्पृह हैं ,समस्त जीवों की दया पालन करते हैं ,इस प्रकार मन को निष्पाप बनाकर लोभ रूपी शत्रु का नाश करने वाले मुनिराज के शौचधर्म  होता हैं।  जो परम मुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारों से युक्त होकर आचरण करता हैं उसके शौच धर्म होता हैं। जो समभाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता हैं तथा भोजन की गृध्धि नहीं करता उसके शौच धर्म होता हैं।
लोभ करने पर पुण्य रहित मनुष्य को द्रव्य नहीं मिलता हैं और लोभ नहीं करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती हैं। इसलिए धन की प्राप्ति   में आसक्ति कारण नहीं ,परन्तु पुण्य ही कारण  हैं। ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिए। इस त्रैलोक्य में मेने अनंत बार धन प्राप्त किया हैं ,अतः अनंतबार ग्रहण कर त्यागे हुए धन की विषय में आश्चर्यचकित  होना व्यर्थ हैं। इस लोक और परलोक में यह लोभ अनेक दोषों को उतपन्न करता हैं ,ऐसा समझकर लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
शुचि आचार वाले के गुण और लोभ के दोषों का विचार करके शौच धर्म धारण करना चाहिए।

शौच धर्म के गुण —
1. शुचि आचार वाले निर्लोभी व्यक्ति इस लोक में सर्व लोग सम्मान करते हैं। विश्वास आदि उसका आश्रय करते हैं।
2. निर्लोभी को तीनों लोकों  में उतपन्न होने वाली महालक्ष्मी प्राप्त होती हैं।
3. उसका यश तीन लोक में फ़ैल जाता हैं और मोक्षलक्षमी स्वयं उसको वरण कर लेती हैं।
4. निर्लोभी के शरीर पर मुकुटादि होने पर भी पापबंध नहीं होता।
5. संतुष्ट मनुष्य चाहे दरिद्र हो तो भी उसको समाधान वृत्ति प्राप्त होती हैं।
6. संतोष  वृत्ति से ही समाधान वृत्ति रहती हैं ,द्रव्य के आधीन नहीं रहती।

लोभ के दोष —-
1. लोभी को दरिद्रता ,घोर दुःख एवं अनेक बार दुर्गतियाँ प्राप्त होती हैं।
2. लोभी के महापाप ,निंद्द्य अशुभ ध्यान होता हैं एवं अशुभ कर्मों का बंध होता हैं।
3.  लोभ  से मुझे यह मिलेगा ,वह मिलेगा आदि आशा वृद्धिगत होती हैं।
4. लोभ के कारण मनुष्य महापाप करता हैं एवं बंधुओं की भी   उपेक्षा कर देता हैं।
5. तृण के लोभ में भी पाप उतपन्न होता हैं तो सारयुक्त वस्तु के लोभ से पाप  नहीं होगा ?
6. परिग्रह के जितने दोष हैं वे सब लोभी के होते हैं।
7. लोभी के त्रैलोक्य की सम्पत्ति  मिलने पर संतोष नहीं होता।
8. जैसे -जैसे शरीर को सुख देने वाली वस्तु प्राप्त होती हैं उसका लोभ बढ़ता ही जाता हैं।
9. लोभ से ही मैथुन ,हिंसा आदि सभी पाप करता हैं।

जो विवेक -विकल  प्राणी  मनुष्य भव में लोभ का कषाय की प्रबलता के कारण अपने स्वार्थ -साधन के लिए दूसरों की श्रमसाध्य सम्पत्ति को चुराते हैं वे भी मरकर जब त्रियंच गति में पदार्पण करते हैं तो बहेलिये   आदि मृगयाविहारी लोग पहले तो उनके शरीरों को अपने जालों में फंसाकर अच्छी तरह बाँध लेते  हैं और बाद में  मार -मार कर उनके मांस से अपनी भूख को शांत करते हैं।
जिस प्रकार लोह पिंड के संसर्ग से अज्ञानी लोगों से पूज्य देवता रूप में प्रसिद्ध अग्नि घन के घातों से पीटी जाती हैं उसी प्रकार लोभादि  कषाय से परिणत परमात्मा की भावना से रहित (मिथ्यादृष्टि )जीव नरकादि गतियों में महान दुखों को भोगता हैं।

पवित्र स्वभाव को छूकर जो पर्याय स्वयं पवित्र हो जाय ,उस पर्यायका नाम ही शौचधर्म हैं।
धरि   हिरदै   संतोष,  करहु   तपस्या   देह   सों।
शौच   सदा   निर्दोष ,धरम  बड़ो   संसार    में।।
उत्तम  शौच   सर्व जग   जाना ,लोभ   पाप  को  बाप  बखाना।
आशा-पास    महा   दुखदानी ,सुख   पावै   संतोषी     प्रानी।।
प्रानी   सदा शुचि  शील   जप तप ,ज्ञान     ध्यान   प्रभाव तै।
नित   गंग  जमुन समुद्र न्हाये,   अशुचि  दोष     स्वभावतैं।।
ऊपर अमल मल भरयो भीतर ,कौन   विधि  घट शुचि कहै।
बहु    देह   मैली सुगुण थैली ,शौच -गुण     साधु    लहै ।।

इस प्रकार हम लोभ के क्या क्या अनर्थ नहीं करते। आज धन ,वैभव के लिए हम कितना छलकपट करते हैं पर जिसके पुण्य का होता हैं उसी को मिलता हैं। पर हर मनुष्य पूरे विश्व का अधिपति बनना चाहता हैं। जीवन में सरलता के साथ रहना ही शौच धर्म हैं। ही प्रभु सबके जीवन में  शौच धर्म  प्राप्त हो।

—डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन,


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