दशलक्षण धर्म का सातवाँ दिन है- उत्तम तप धर्मांग


आज उत्तम तप धर्म का दिन है। कर्मों के क्षय के लिये जो तपा जाता है , उसे तप कहते हैं। इच्छा निरोधः तपः अर्थात् इच्छाओं को रोकना या जीतना ही तप हैं।

हम कह सकते हैं संयम में भी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना था और तप में भी वही करना है तो इनमें अंतर क्या है ?

यदि संवर और तप में अंतर न होता तो आचार्य भगवन इनका वर्णन अलग-अलग क्यों करते ?

समाधान– सच्चा तप संवर पूर्वक ही होता है। संवर में इच्छाओं पर नियंत्रण किया , यानि इच्छायें सीमित हुई , जबकि तप अर्थात् ऐसे भाव जिससे इच्छाओं का निरोध हुआ , यानि इच्छाऐं उत्पन्न ही नहीं हुई। कहने का अभिप्राय यही है कि जब इच्छायें उत्पन्न ही नहीं होगी तो नियंत्रण का सवाल ही नहीं आयेगा , वही सच्चा तप है। और ‘तपसा निर्जरा च’और यही सच्चा तप निर्जरा का कारण है।

“बारस अणुवेक्खा” ग्रंथ में तप का स्वरूप बताते हुये आचार्य कहते हैं–

“पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिये जो अपनी आत्मा का विचार करता है , उसके नियम से तप होता है।” (77)

धवला जी में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं –  तिण्णं रयणाणमाविब्भावट्टमिच्छाणिरोहो।

अर्थात् तीनों रत्नों को प्रगट करने के लिये इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं।

(13/5,4,26/54/12)

“नियमसार जी” में भी “आचार्य कुन्दकुन्द ” यही कहते हैं —

……तवो विसयणिग्गहो जत्थ।

अर्थात् तप वही है जहाँ विषयों का निग्रह हो।

प्रवचनसार जी में भी आचार्य भगवन यही कहते हैं कि — भावों में समस्त इच्छाओं के त्याग से स्वस्वरूप में प्रतपन करना , विजयन करना सो तप है।

कहने का तात्पर्य यही है कि जिन भावों से मोह-राग-द्वेष रूपी मैल और शुद्ध ज्ञान दर्शन मय आत्मा भिन्न-भिन्न हो जाये वही सच्चा तप है। एक मात्र तप ही वह कारण है जो कर्म रूपी शिखर को भेदने में समर्थ हैं।

तप के भेद–

अंतरंग और बहिरंग के भेद से तप के बारह भेद है–

अंतरंग तप —

प्रायश्चित, विनय , वैयावृत्य , स्वाध्याय , व्युत्सर्ग और ध्यान।

बहिरंग तप —

अनशन , अवमौदर्य , वृत्ति परिसंख्यान , रसपरित्याग , विविक्त शय्यासन , कायक्लेश।

यद्यपि सम्यक प्रकार से तप तो मुनिराजों को ही होता है , लेकिन श्रावकों को भी शक्ति अनुसार इन तपों की भावना भानी चाहिए। क्यों कि संयम की तरह तप भी चारों गतियों में से मात्र मनुष्य गति में ही संभव है। नरक और तिर्यंच गति में तो दुख की प्रधानता है , लेकिन देवगति में तो जीव को सर्वसुविधायें मिलती है , लेकिन फिर भी वे जीव उत्तमतप धारण करने के लिये तरसते हैं।

हे आत्मन् ! विचार तो कर ! अनंतकाल निगोद में बिताकर पृथ्वी जल आदि एकेन्द्रिय , फिर दो , तीन , चार , पंचेन्द्रिय , उसमें भी पशु , तब जाकर ये मनुष्य पर्याय तुझे मिली है , इतना ही नहीं उत्तम कुल , निरोगी काया , जिनवाणी का उपदेश और सुनने की रुचि ये सब सुसंयोग तुझे अति दुर्लभता से प्राप्त हुये हैं। और जो जीव इन संयोगों के मिलने पर पंचेन्द्रिय के विषय और कषाय जनित परिणामों का त्याग कर उत्तम तप को अंगीकार करते हैं , तो समझिये वे इस अमूल्य मनुष्य भव रूपी महल पर मणि-मुक्ता रत्नों से जड़ित सुंदर कलश का आरोहण करते हैं। “पंड़ित द्यानतराय जी” के शब्दों में —

“बस्यौ अनादि निगोद मँझारा ,

                     भू विकलत्रय पशु तन धारा।।

धारा मनुष तन महादुर्लभ ,

                      सुकुल आयु निरोगता।

श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी ,

                       भई विषयपयोगता।।

अति महादुर्लभ त्याग विषय ,

                      कषाय जो तप आदरैं।

नरभव अनुपम कनकघर पर ,

                     मणिमयी कलशा धरैं।।

सम्यक्त्व या अंतरंग तप के बिना बाह्य तप निरर्थक है —

बहिरंग तप बाह्य द्रव्य के अवलंबन से होते हैं , यानि भोजनादि के त्याग से , सो इन्हें तो गृहस्थ अन्यमती भी धारण कर लेते हैं।

जब कि अंतरंग तप में  बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं होती इनमें भावों की प्रधानता होती है , जब जीव स्वभाव के सन्मुख होता है तब स्वतः ही सांसारिक क्रियाओं के भाव उत्पन्न ही नहीं होते , उसी से वीतरागता की भी वृद्धि होती है। इसीलिये अंतरंग तप ही कार्यकारी है।

क्यों कि जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानते वे जीव करोड़ों वर्षों तक तप तपने के बाद भी बोधि अर्थात् रत्नात्रय को प्राप्त नहीं कर सकते।

“अति तप भी करे , संयम का पालन भी करे , और सकल शास्त्रों का अध्ययन भी करे , परन्तु जब तक जीव आत्मा को नहीं ध्याता तब तक मोक्ष नहीं होता ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।”

( आचार सार 54/129)

सम्यकदर्शन के साथ होने वाला तप ही निर्जरा का कारण है।

तप के पालन से लाभ–

जिस प्रकार अग्नि का एक तिनका भी बड़े से बड़े घास के ढ़ेर को जला देता है , उसी प्रकार सम्यक तप पूर्व संचित कर्मों के ढ़ेर को जलाकर भस्म कर देता है। संसार शरीर और भोगों से विरक्ति भी तप से ही होती है।

अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव व्रतादिक के द्वारा शरीर को कृश करके और अनेक प्रकार के कायक्लेश सहने को तप कहता है , पर ये वास्तव में तप नहीं है। मात्र भोजन के त्याग का नाम तप नहीं है , पहले कषाय का त्याग ,फिर पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग, फिर आहार का त्याग तब वह तप की संज्ञा पाता है।

सम्यक तप ही दोषों का परिमार्जन करता है , इसी से आचार की विशुद्धता और ज्ञान सम्यक होता है। परिणामों में निर्मलता आती है, संसार के दुखों से छुटकारा मिलता है। और सच्चे सुख की प्राप्ति होती है, तथा कालांतर में सिद्ध दशा की प्राप्ति में भी सम्यक तप ही कारणभूत है।

हम सब तप के सच्चे स्वरूप को समझकर अपनी इच्छाओं का निरोध कर अपने जीवन को सम्यक तप से सुशोभित करें ऐसी मंगल भावना है।

 

–नीरज जैन दिल्ली


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