Home Jainism कबीर में समाये थे महावीर- महावीर जन्म कल्याणक पर विशेष

कबीर में समाये थे महावीर- महावीर जन्म कल्याणक पर विशेष

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कबीर में समाये थे महावीर- महावीर जन्म कल्याणक पर विशेष

भगवान् महावीर का व्यक्तित्व इतना विराट था कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व का कोई भी मानव उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा | कहते हैं उनके जन्म के समय नरकों में भी कुछ समय के लिए मार-काट बंद हो गयी थी | उनके दर्शन ,चिंतन और शिक्षाओं का प्रभाव बाद में  भारत की निराकार निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने वाले संत कवियों पर भी पड़ा और मुस्लिम सूफी परंपरा पर भी | सभी ने महावीर के क्रांन्तिकारी विचारों से प्रभावित होकर अपने – अपने तरीके से उनके सिद्धांतों को अपनाया | इसी कड़ी में एक बहुत ही प्रभावशाली और क्रन्तिकारी संत हुए ‘कबीर’ | इनके साहित्य को साखी,सबद और रमैनी में संकलित किया गया है | कबीर को पढ़ते हैं तो एक नहीं अनेक स्थलों पर ऐसा लगता है जैसे भगवान् महावीर बोल रहें हैं | कबीर की वाणी में महावीर वाणी की गूँज स्पष्ट्या दिखाई देती है |कबीर ने जीवन के व्यावहारिक पक्षों में अध्यात्म की अभिव्यक्ति बड़ी कुशलता से की है | ऐसा लगता है मानो संत कबीर की दृष्टि में सच्चा धर्म वही था, जिसमे आत्मा या जीव ने स्वयं परमात्मा बनने या परमात्मा तक पहुँचने की घोषणा की थी |

भगवान् महावीर ने सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूपी  रत्नत्रय का जो मार्ग प्रशस्त किया था , वह संसारी, गृहस्थ और वीतरागी श्रमण दोनों के लिए समान रूप से उपयोगी है | भगवान् महावीर स्वयं के जीवन में अध्यात्म और दर्शन को अपनाकर सिद्धत्व की प्राप्ति कर मोक्षगामी हुए |उन्होंने ही आत्मा को परमात्मा बनाने वाली बात कह कर दुनिया के हर उस धर्म के सामने चुनौती खड़ी कर दी थी जो यह मानते थे कि जो परमात्मा है वह ईश्वर है और वह एक मात्र है तथा कोई भी अन्य व्यक्ति ईश्वर नहीं बन सकता है |

आत्मा का ज्ञान 

भगवान् महावीर ने आत्मोपलब्धि अर्थात् आत्म बोध का ज्ञान दिया | आत्मा के ज्ञान के विषय में भगवान् महावीर कहते हैं –

जो अप्पाणं जाणदि, असुइ – सरीरादु  ताच्चदो भिन्नं |

                                   जाणग-रूव-सरूवं,      सो  सत्थं     जाणदे सव्वं  ||       (कार्तिकेयानुप्रेक्षा ,४६३)

जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञायक भाव रूप जानता है ,वही समस्त शास्त्रों को जानता है |

प्रत्येक जीव अपने वास्तविक स्वरूप को अर्थात् अपनी आत्मा को भूला बैठा है और भव भ्रमण कर रहा है  यह जीव तत्व ही ऐसा पारस मणि है जिसका अनुभव किये बिना संसार की अनंत सुख सुविधाएं अनुपयोगी हैं |

इस सन्दर्भ में कबीर कहते हैं  –

  पारस रुपी जीव है, लौह रूप संसार |

                                        पारस से पारस भया, परख भया टकसार ||

यह जीव पारस के समान अमूल्य है | इस जीव की व्यापकता जान लेने पर ही यह संसारी प्राणी (लौह) पारस की तरह अमूल्य बन जाता है | यहाँ ‘परख’ से तात्पर्य अपनी पहचान से है क्योंकि बिना पहचान के यह अपनी अनंत शक्तिओं को भूला हुआ है |

प्रत्येक जीव में है सिद्ध बनने की शक्ति

संसार में प्रत्येक आत्मा एक समान है  चाहे वह चीटीं की हो या मनुष्य की | प्रत्येक जीव में सिद्ध बनने की अनंत संभावनाएं होती हैं परन्तु सच्चा श्रद्धान न होने के कारण वे शक्तिंयां सुप्त अवस्था में ही रहती हैं | जागृति हुए बिना सच्चा श्रद्धान होता नहीं है | इस संबंध में भगवान् महावीर ने कहा –

अप्पा सो परमप्पा (परमात्मप्रकाश,२/१७४) जो आत्मा है, वही परमात्मा है |

कबीरदास जी ने इसी  बात को कहने का प्रयास किया है –

 बूँद जो परा समुद्र में, सो जानत सब कोय |

                                       समुद्र समाना बूँद में , सो जाने बिरला कोय ||

यह बात सर्व सामान्य है कि यह जीवात्मा शरीर धारण करके संसार में जन्म और मरण की प्रक्रिया में लगी हुई है चारों गतियों में भ्रमण कर रही है परन्तु कोई भव्य आत्मा ही इसकी अनंत शक्ति को जान पाती है | जिसमे इस सृष्टि को जानने की योग्यता है , वह बूँद हमारी आत्मा है , जो अपने में समुद्र अर्थात् संसार को ही सोख लेती है | जीव के सहज स्वरूप में संसार विसर्जित हो जाता है | जीव की इस विलक्षणता को सब नहीं जान पाते हैं | इससे पता चलता है कि जैन दर्शन की कितनी गहरी अनुभूति कबीर के भीतर तक समाहित थी कि दूसरे दोहे में कबीर कहते हैं  –

हंसा तू तो सबल था, हलुकी अपनी चाल |

                                       रंग कुरंगे रंगिया , तै किया और लगवार  ||

कहने का तात्पर्य है कि हे मानव तूं तो शक्तिमान है ईश्वर जैसा धवल है अर्थात् कर्म-कालिमा से रहित है फिर भी तुझे अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं है और नीच काम करके स्वयं को कर्म कालिमा से लिप्त कर लिया है इस प्रकार स्वयं के अज्ञान ने तुझे स्वामी से दास बना दिया है |

कर्मों से मुक्ति के उपाय

भगवान् महावीर ने कर्मों का कारण जीव की बहिर्मुखी दृष्टि बताया है | यदि यही जीव अंतर्दृष्टि प्राप्त करके अपने चैतन्य स्वभाव को मूर्च्छा से तोड़कर एक तटस्थ भाव में आ जाये तो वह अपने कर्मों की निर्जरा कर सकता है  | इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर कहते हैं कि-

  अक्खाणि बहिरप्पा, अन्तरप्पा हु अप्पसंकप्पो |

                                       कम्मकलंक –विमुक्को, परमप्पा  भण्णए  देवो  ||     ( मोक्षपाहुड,५)

इन्द्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है | आत्म संकल्प – देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अंतरात्मा है | कर्म कलंक से विमुक्त आत्मा, परमात्मा है |

इस प्रकार जीव की बहिर्बुद्धि उसके संसार भ्रमण का कारण बनी हुई है | सिर्फ दृष्टि को आत्मा की तरफ मोड़ना है सृष्टि स्वयं ही बदल जायेगी | भगवान् महावीर ने तो पुण्य एवं पाप को क्रमशः सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी कहा है, दोनों ( पुण्य एवं पाप ) ही दुःख रूप हैं –

     सौवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरीसं |

                                        बंधदि   एवं   जीवं   सुहमसुहं   वा   कदं     कम्मं    ||   (समयसार, १५३ )

जिस प्रकार सोने और लोहे ,दोनों की बेड़ियां पुरुष को बांधकर रखतीं हैं , उसी प्रकार जीव को शुभ तथा अशुभ,जड़ कर्म(संसार में)बाँध कर रखते है |

इन्हीं भावों को कबीर ने सरस एवं सरल रूप में कहा है –

तीन लोक भौ पींजरा, पाप पुण्य भौ जाल |

                                          सकल जीव सावज भये,एक   अहेरी काल  ||

अर्थात् संसार की चौरासी लाख योनियों के काराग्रह में पाप और पुण्य बेड़ियाँ हैं | सजा देने वाला काल

चक्र अथवा मृत्यु इस जीव के पीछे प्रत्येक समय लगा रहता है | ऐसा प्रतीत होता है कि संत कबीर ने महावीर के सिद्धातों को कितनी गहराई से अपने ह्रदय में उतारा था कि उनके  प्रत्येक दोहे में महावीर बसे थे |

धर्म ही शरण है

चारों गतियों में भ्रमण करते हुए जन्म और मरण के तीव्र प्रवाह में डूबते प्राणियों के लिए धर्म ही उत्तम शरण है | आत्मानुभूति के अलावा अन्य कोई शरण नहीं है | संसार में ऐसे कोई भी प्रभु नहीं हैं जो तुम्हारी ऊँगली पकड़कर भव पार करा दें, वे जिस रास्ते पर चलकर मोक्षगामी हुए हैं वही पथ हमें भी बता दिया जिस पर चलकर हमें खुद जाना पड़ेगा |

भगवान् महावीर ने कहा –

चत्तारि सरणं पव्वज्जामि – अरिहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलीपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ।

अर्थ लोक में चार शरण हैं -अरिहंत ,सिद्ध ,साधु एवं केवली भगवान् द्वारा कहा गया धर्म | इन चार की ही मैं शरण लेता हूँ और यह भी कहा है –

शुद्धातम अरु पञ्च गुरु ,जग में शरणो दोय |

मोह उदय हिय के वृथा आन कल्पना होय ||

कबीर कहते हैं –

जो तू चाहे मुझको, छांड़ सकल की आस |

                                           मुझ ही ऐसा होय रहो,सब सुख तेरे पास ||

पराश्रय बुद्धि से जीव अज्ञान के गहन अंधकार में डूबा है इस अज्ञान को दूर करने के लिए स्वयं के प्रति जागना होगा | स्वानुभूति के अलावा अन्य कोई शरण नहीं है | निज में ही सुख का ख़जाना भरा पड़ा है बस उसे अनुभव करने की जरूरत है और यह आत्मानुभूति के बिना संभव नहीं है |

कबीर बहुत ही घुमक्कड़ प्रकृति के थे | जैसा कि उनका स्वभाव था वे किसी पंथ के आग्रह से भी नहीं बंधे थे | जब वे भ्रमण करते थे तो निश्चित ही जैन मुनियों के संपर्क में आये होंगे | उनसे आध्यात्मिक शिक्षा भी प्राप्त की होगी और प्रभावित भी हुए होंगे ,यही कारण है कि उनके जीवन और दर्शन पर भगवान् महावीर का स्पष्ट प्रभाव दिखलाई देता है |

 

— श्रीमती रूचि अनेकांत जैन

 


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