Home Jainism जैन मुनियों की अद्वितीय जीवन चर्या: परीषह जय निराकुलता युक्त जीवन चर्या

जैन मुनियों की अद्वितीय जीवन चर्या: परीषह जय निराकुलता युक्त जीवन चर्या

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जैन मुनियों की अद्वितीय जीवन चर्या: परीषह जय निराकुलता युक्त जीवन चर्या

परिषह  सहनशक्ति की प्रबलता से सही जाने वाली एवं मोक्षमार्ग में आने वाली बाधाएँ । इन्हीं के कारण सम्यक्चारित्र को पाकर भी तपस्वी भ्रष्ट हो जाते हैं । ये बाधायें बाईस होती हैं । वे हैं― क्षुधा, पिपासा (तृषा) शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, शय्या, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, अदर्शन, रोग, तृणस्पर्श, प्रज्ञा, अज्ञान, मल और संस्कार-पुरस्कार । मार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा हेतु इनको सहन किया जाता है । इनकी विजय पर ही महात्माओं की सिद्धि आश्रित होती है । इनकी विजय के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिंतन किया जाता है।

गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की बाधाएँ आने पर आर्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से विचलित न होना परिषह जय है। यद्यपि अल्प भूमिकाओं में साधक को उनमें पीड़ा का अनुभव होता है, परंतु वैराग्य भावनाओं आदि के द्वारा वह परमार्थ से चलित नहीं होता।

१ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः।

मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मो की निर्जरा के लिए क्षुधादि वेदना के होने पर जो सहा जाय वह परीषह है दु:ख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना, शांत भाव  से सहन करना,  परीषह का जीतना परीषह जय हैं | (तत्त्वार्थसूत्र/९/८)

२ क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परिषहः।

क्षुधादि वेदना के होने पर कर्मों की निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परिषह है। (सर्वार्थसिद्धि/९ /२ /४०९ /८ )

३ परिषह्यत इति परीषहः
जो सही जाय वह परिषह हैं। ( राजवार्तिक/९ / २ /६ /५९२ /२)
परिषह जय का लक्षण—–
परिषहस्य जयः परिषहजयः।

परिषह का जीतना परिषहजय है। ( राजवार्तिक/९ /२ /६ /५९२ /५  )।
‘दुःखोपनिपाते संक्लेशरहिता परीषह-जयः  ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/११७१/११५९/१८)
दुःख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना ही परिषहजय है।
सो विपरिसह-विजओ छुहादि-पीडाण अइरउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं।
= अत्यंत भयानक भूख आदि की वेदना को ज्ञानी मुनि जो शांतभाव से सहन करते हैं, उसे परिषहजय कहते हैं। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/९८)

‘‘क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि  समतारूपपरमसामायिकेन.निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानंदलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परिषहजय इति।  – क्षुधादि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी… समता रूप परम सामायिक के द्वारा… निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकाररहित, नित्यानंद रूप सुखामृत अनुभव से, जो नहीं चलना सो परिषहजय है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/३५ /१४६ /१०)

परिषह के भेद
क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषेद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कार-पुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि॥ =  तत्त्वार्थसूत्र/९ / ९ ॥

परीषह बाईस होते है वे इस प्रकार है :-
१. क्षुधा, २. तुषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दशमशक, ६. नाग्न्य, ७. अरति, ८. स्त्री, ९चर्या  १०.निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३.वध, १४. याचना, १५. आलाभ, १६ रोग, १७. तृण स्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार–पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान २२ अदर्शन परिषह।( तत्त्वार्थसूत्र/९ / ९)

  1. आहार न मिलने पर, अन्तराय – उपवास होने पर उत्पन्न क्षुधा वेदना को समता पूर्वक सहन करना ‘क्षुधा परीषह जय’ है।
  2. ग्रीष्म कालीन तपन से, अंतराय आ जाने पर उत्पन्न प्यास की वेदना को शान्त भाव से सह लेना ‘तृषा परीषह जय’ हे।

3. बंदरों के भी मद को नष्ट करने वाली भयंकर सर्दी पड़ने पर, शीत लहर चलने पर संतोष रूपी कम्बल को धारण कर शीत वेदना को सहना ‘शीत परिषह जय’ है।

4. ग्रीष्म ऋतु में गरम-गरम हवाओं के चलने पर, विहार में मार्ग तप जाने, गले और तालू सूख जाने पर भी प्राणियों की रक्षा का विचार करते हुए कष्टों को सहन करना ‘उष्ण परीषह जय’ है।

5. डांस, मच्छर, मक्खी, खटमल, बिच्छु आदि डसने वाले जन्तु आदि के काटने पर उत्पन्न पीड़ा को अशुभ कर्मों का उदय मानकर शान्त भाव से सहन करना ‘दंशमशक परीषह’ है।

6. वस्त्र रहित जिनलिंग को देखकर अज्ञानियों द्वारा उपहास करने पर, लोगों द्वारा अपशब्द कहने पर मन में किसी प्रकार का विकार नहीं लाना, खेद नहीं करना ‘नाग्न्य परीषह जय’ है।

7. प्रतिकूल वसतिका, क्षेत्रादि मिलने पर, भूख-प्यास की वेदना होने पर संयम के प्रति अप्रीति नहीं करना, पूर्व में भीगे हुए सुखों का स्मरण नहीं करना ‘अरति परीषह जय’ है।

8. एकान्त स्थान में स्त्रियों द्वारा अनेक कुचेष्टाएं करने पर, रिझाने का प्रयास करने पर उनके राग में नहीं फंसना ‘स्त्री परीषह जय’ है।

9. गमन करते समय कांटा चुभने पर, छाले पड़ने पर, पैर छिल जाने पर, कंकड़ आदि चुभने पर भी प्रमाद रहित ईर्यापथ का पालन करते हुए खेद खिन्न नहीं होना ‘चर्या परीषह जय’ है।

10. भयंकर श्मशान, वन पहाड़, गुफा आदि में बैठकर ध्यान करते समय नियमित काल पर्यन्त स्वीकृत आसन से विचलित नहीं होना ‘निषद्या परीषह जय’ है।

11. छह आवश्यक कर्म, स्वाध्याय, ध्यान आदि करने से उत्पन्न थकान दूर करने के लिए कठोर कंकरीले आदि स्थानों पर एक करवट से निद्रा लेना, उपसर्ग आने पर भी शरीर को चलायमान नहीं करना ‘शय्या परीषह जय’ है।

12.  क्रोधादि के निमित्त मिलने पर, प्रतीकार की क्षमता होते हुए भी क्षमा धारण करते हुए शान्त रहना ‘आक्रोश परीषह जय’ है।

13. तलवार आदि शस्त्रों के द्वारा, कंकड़ पत्थर द्वारा, शरीर पर प्रहार करने वालों से भी द्वेष नहीं करना शान्त रहना ‘वध परीषह जय’ है।

14. शरीर कृश होने पर, औषध आदि की आवश्यकता होने पर दीन वचनों से, मुख म्लानता, हाथ के संकेत से औषधादि नहीं माँगना ‘ याचना परीषह जय’ है।

15. कई दिनों तक आहार न मिलने पर भी संतोष धारण करना, ‘अलाभ परीषह जय’ है।

16. अनेक प्रकार की व्याधि कुष्ट रोग, जलोदर रोग आदि होने पर उनके उपशम करने की सामथ्र्य होने पर भी उसका इलाज नहीं करना, कर्म विनाश की इच्छा से सहन करना ‘ रोग परीषह जय ‘ है।

17. कठोर स्पर्श वाले तृण, काष्ठ फलक आदि पर बैठना, शयन करना, उसमें उत्पन्न पीड़ा को सहन करना ‘तृष स्पर्श परीषह जय’ है।

18. शरीर पर मैल, पसीना जम जाने पर उसे दूर करने का विचार नहीं करना ‘मल परीषह जय” है।

19. अपने गुणों में अधिकता होने पर भी यदि कोई सत्कार न करे, आगे आगे न करे, प्रशंसा न करे तो भी चित्त में व्याकुलता नहीं होना तथा प्रशंसा होने पर भी प्रसन्न न होना ‘सत्कार पुरस्कार परीषह जय’ है।

20. अपने पांडित्य का गर्व न होना प्रज्ञा परिषह जय हैं

21.  बार-बार अभ्यास करते हुए भी ज्ञान की उपलब्धि न होने पर लोगों के द्वारा किए गए तिरस्कार को     समता पूर्वक सहन करना ‘ अज्ञान परीषह जय’ है।

22. बहुत समय तक कठोर तपस्या करने पर भी विशेष ज्ञान या ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होने पर भी दर्शन के प्रति अश्रद्धा भाव नहीं रखना ‘अदर्शन परीषह जय’ है।

इस तरह इन बाईस परीषहों को संक्लेश रहित चित्त से सहन करने से महान् संवर होता है। ( ९  )

उपरोक्त वर्णन से हमें यह शिक्षा मिलती हैं की विपरीत /विषम स्थितियों में हमे किस प्रकार कष्टों को समता भाव से सहना चाहिए .मानव को हमेशा इस विषय में सचेत रहना चाहिए कारण विषम परिस्थितिया कभी भी आ सकती हैं। हम भौतिकवादी बन चुके हैं ,कोई भी प्रतिकूल अवस्था में आने से हमारा मनोबल ,आत्मविश्वास डिगने लगता हैं।  इसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता हैं जिससे हम मानसिक विकारों से ग्रसित होने लगते हैं जो हमारे शरीर पर परिलक्षित होने लगता हैं। कभी कभी हमें अभाव में भी जीने के लिए अभ्यस्त होना चाहिए।

हमारे आसपास में जैसे सेना क्षेत्र में विषम स्थितियां होने पर भी वे हमारी सुरक्षा में संलंग रहते हैं कष्टों के समय अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना यानी स्वयं पर स्वयं को जीतना यह हमारे मनोबल को बढ़ाता हैं।

किस गुणस्थान मे कितनी परिषह होती हैं यह बतलाते हैं – सूक्ष्मसाम्पराय-छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ||१०| अर्थ-सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में और छदास्थ वीतराग यानी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृण स्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह होती हैं। मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली आठ परिषहनहीं होती,क्योकि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का उदय ही नहीं है। दसवें में केवल लोभ संज्वलन कषाय का उदय है। वह भी अत्यन्त सूक्ष्म है अत: दसवाँ गुणस्थान भी वीतराग छदयस्थ के ही तुल्य है। इसलिए उसमें भी मोहजन्य आठ परिषह नहीं होतीं //

परिषह जयी  जो भी अपने जीवन में इन २२ शारीरिक, मानसिक कष्टों को समता भाव से जीतता हैं वह स्वयं को कष्टों से विमुक्त होकर व्यक्तिगत ,सामाजिक,धार्मिक क्षेत्र में उत्थान करता हैं। आज व्यक्ति में सुविधा भोगी होने के कारण थोड़ी सी कमी या प्रतिकूलता में अपना संतुलन बिगाड़ कर विवाद, झगड़ा, हत्या, आत्महत्या, कलह को स्थान देता हैं, जो दुःख, अपराध का कारण बन जाता हैं।

— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन


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