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अद्वितीय थे आचार्य ज्ञानसागर जी

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अद्वितीय थे आचार्य ज्ञानसागर जी

दीपावली की शाम जब हम घरों में ज्ञान के प्रतीक स्वरूप दीप प्रज्वलित कर रहे थे तभी सहसा एक दुखद समाचार मिला कि एक श्रुत ज्ञान दीप अभी अभी बुझ गया है ….।

सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ कि वर्तमान में जैन धर्म दर्शन संस्कृति की रक्षा का संकल्प लेकर एक अद्वितीय  जिनधर्म विजय अभियान लेकर चलने वाले ,जन जन की श्रद्धा के आसन पर विराजने वाले दिगम्बर जैन परंपरा के महान साधक आचार्य ज्ञान सागर जी की समाधि अचानक हो गयी है ।

अपने कुछ हाथ में नहीं था तो एकांत ध्यान में बैठकर महामंत्र का जाप किया और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की ।

मन में बचपन के वे दिन भी स्मृति पटल पर चलचित्र की भांति चलने लगे जब पिताजी( डॉ फूलचंद जैन प्रेमी जी) के साथ मैंने उनके सर्वप्रथम दर्शन तब किये थे जब वे बनारस पधारे थे । मेरी अभिरुचि को देखकर उन्होंने मुझे शाकाहार आदि पर लेख लिखने को प्रेरित किया था जो तब से आज तक सतत चल ही रहा है ।

मेरी तरह उन्होंने लाखों बच्चों और युवकों की प्रतिभा को अपनी प्रेरणा से जैन संस्कृति की सेवा करने को प्रेरित किया और लगाया है ।

2003 में विवाहोपरांत मैं सोनागिर में जब उनके दर्शनार्थ जोड़े से पहुंचा तब उन्होंने मेरी धर्म पत्नी ( रुचि जैन ) को भी इसी क्षेत्र में कार्य करने हेतु प्रेरित किया जिसके फल स्वरूप वे भी जैन दर्शन के अध्ययन अनुसंधान में सहज ही संलग्न हो गईं ।

दैनिक जागरण आदि राष्ट्रीय अखबारों में जैन धर्म दर्शन से संबंधित मेरे निबंध देखकर वे बहुत प्रभावित थे इसी आधार पर उन्होंने अजैनों में जैन धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से मुझे जैन धर्म का सरल परिचय देने वाली एक पुस्तक रचना हेतु भी प्रेरित किया जो ‘ जैन धर्म एक झलक के नाम से विख्यात हुई और अभी तक लगभग पचास हज़ार प्रतियां उनकी प्रेरणा से उसकी प्रकाशित होकर जैन अजैन सभी पाठकों तक पहुंच चुकी हैं ।

आचार्य शांति सागर जी महाराज छाणी जी ने धवला के प्रथम सत्प्ररुणा विषय पर एक बहुत रोचक  प्रश्नोत्तर  लिखे थे किंतु वे अप्रकाशित थे । आचार्य श्री ने उसका संपादन करने हेतु कहा । मैंने आगम प्रमाण के साथ संदर्भों के साथ पूरे मनोयोग से उसका संपादन किया फिर उनके आशीर्वाद से ही वह ‘ सत्प्ररुपणासार ‘ के नाम से छाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ ।

ये तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा किन्तु इस प्रकार के हज़ारों लोगों को उन्होंने प्रेरणा देकर कार्य करवाया ।

मुझे स्मरण है कि वाराणसी में न्याय शास्त्र के प्रकांड विद्वान पंडित उदयचंद जैन जी को वृद्धा अवस्था में भी प्रेरणा देकर ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’ अनुशीलन हिंदी में लिखवाया जो सभी नए विद्यार्थियों के लिए आज भी बहुत उपयोगी है ।

इस ग्रंथ की वाचना भी उन्होंने स्वयं के तथा कई वरिष्ठ विद्वानों के सानिध्य में पंडित जी से मथुरा में 1997  में करवाई थी और मुझे स्मरण है कि इस वाचना में मैं भी अपने पिताजी के साथ गया था और वाचना सुनी थी ।

विद्यार्थी काल में सुनी उस वाचना का मेरे ऊपर यह प्रभाव रहा कि ठीक 20 वर्ष बाद मैंने भी प्रमेकमलमार्तण्डसारः का संपादन और अनुवाद किया तथा वह भारतीय ज्ञान पीठ से 2017 में प्रकाशित हुआ ।

उनका नाम ज्ञानसागर था , वे जिनवाणी के ज्ञान के प्रति इतने अधिक समर्पित तथा उसके संरक्षण के प्रति इतने चिंतित रहते थे कि कुछ भी करने को तैयार रहते थे ।

प्राच्य श्रमण भारती तथा श्रुत संवर्धन संस्थान के माध्यम से उन्होंने जैन ग्रंथों के बृहद स्तर पर प्रकाशन और उसके निःशुल्क वितरण की जो योजना अपनी प्रेरणा से बनवाई वो एक मिसाल है जो अन्यान्य अनुपलब्ध जिनवाणी साहित्य को आज भी सुलभ बना रही है ।

मैंने अपने विश्वविद्यालय में जैन विद्या पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए कई बार उनके यहां से प्रकाशित साहित्य मंगाया तो वहां के पदाधिकारियों ने सभी विद्यार्थियों को बहुत उत्साह से निःशुल्क साहित्य वितरित किया ।

मैंने उनके अंतिम दर्शन तिजारा जी चातुर्मास के समय विगत वर्ष किये थे । इतना कार्य करवाने के बाद भी

अपनी चिर परिचित कृत्रिम डांटने और उलाहना वाली शैली में उन्होंने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है , तुम मेरे पास कम आते हो , नियमित आया करो , तुम्हें बहुत काम करना है ।

अब उनकी ये पंक्तियां बार बार कानों में गूंज रही हैं ।

आज उनका सहसा चला जाना किसी को भी सहन नहीं हो रहा है । लेकिन वैराग्य के इस प्रसंग से हमें उनके जीवन और जीवन के मिशन से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए । उनके अचानक वियोग ने हमें एक बार फिर यह भी बता दिया कि हम चाहे श्रावक हों या साधु अगले क्षण के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते अतः इस नश्वर जीवन में कुछ शाश्वत कार्य अवश्य करने चाहिए ,अन्यथा  कब और कहाँ यह पर्याय पूरी हो जाय ,कुछ पता नहीं है ।

मैं मानता हूं जिनवाणी प्रकाशन और प्रसार की उनकी प्रेरणा और भावना अब हम सभी की भावना बने और उनकी कल्पना को हम साकार करें यही हमारी तरफ से उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।

 

— प्रो अनेकान्त कुमार जैन

 


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