हम सभी के परम सौभाग्य से आस्था का एक कलश समर्पित करने का अवसर हमें कर्नाटक के श्रवण्बेलगोला में प्राप्त होने जा रहा है। विश्व के आठवें आश्चर्य के रूप में विख्यात श्रवणबेलगोला स्थित भगवान गोम्मटेश्वर बाहुबली की 57 फीट ऊंची बाहुबली की प्रतिमा एक ही प्रस्तरखण्ड से निर्मित मनोरम मूर्ति है। पर्वत शिखर पर एक ही चट्टान तराशकर बनायी गयी बाहुबली स्वामी की ऐसी विशाल कलात्मक मनोज्ञ मूर्ति अपने देश में ही नहीं विश्व में भी अद्वितीय है। अहिंसा से सुख, त्याग और शांति, मैत्री से प्रगति तथा ध्यान से सिद्धि की प्रतीक महाप्रतापी सेनानायक महामात्य श्री चामुण्डराय द्वारा श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में 1036 वर्ष पूर्व स्थापित भगवान बाहुबली की अखण्ड 57 फुट ऊंची अनुपम, अत्यंत मनोज्ञ मूर्ति का महामस्तिकाभिषेक एवं असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या, वाणिज्य के प्रणेता जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के पुत्र थे।
भगवान बाहुबली का प्रत्येक 12 वर्षों बाद महामस्तिकाभिषेक होता है, जिसमें लाखों जैन एवं जैनेतर श्रद्धालु सम्मिलित होते हैं। अभी तक 981, 1396, 1612, 1659, 1672, 1675, 1677, 1800, 1825, 1827, 1871, 1887, 1900, 1910, 1925, 1940, 1953, 1967, 1981, 1993 एवं 2006 में महामस्तिकाभिषेक अपनी गरिमा के साथ सम्पन्न हो चुके हैं। आगामी महामस्तिकाभिषेक फरवरी 2018 में बृहद् स्तर पर होने जा रहा है। जिसका शुभारंभ 07 फरवरी 2018 को होगा और 18 से 25 फरवरी 2018 तक कलशाभिषेक का आयोजन किया जायेगा। आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में यह तीसरा महामस्तिकाभिषेक है। आयोजन के कुशल नेतृत्वकर्त्ता कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारूकीर्ति जी भट्टारक स्वामीजी का कहना है कि -‘ विश्वतीर्थ श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली स्वामी का महामस्तिकाभिषेक महोत्सव भारतवर्ष के जैन समाज का भक्ति पर्व है। भक्ति-विश्वास के इस अनूठे पर्व को समुन्नत बनाने हेतु केन्द्र व राज्य सरकार का सहयोग है साथ ही जैन समाज भी तन-मन-धन से सहयोग कर रहे हैं।’
दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जैन साहित्य,संस्कृति और कला की वह पावन त्रिवेणी कर्नाटक की धरती पर प्रवाहित हुई, जिसकी तरंगों ने इस भूमि के इतिहास को अपूर्व निर्मलता प्रदान करके पवित्र कर दिया।
इस अनोखी त्रिवेणी का संगम बनने का सौभाग्य मिला ‘श्रवणबेलगोल’ को। गंग राजवंश के एकाधिक शासकों के अधीन महामात्य और सेनाध्यक्ष के दोनों महत्वपूर्ण पद एक साथ धारण करने वाले ‘वीर मार्तण्ड’ श्री चामुण्डराय इस दुर्लभ संयोग के सूत्रधार बने। श्रवणबेलगोला में ‘विन्ध्यगिरी’ पर गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबली की लोकोत्तर प्रतिमा निर्माण करने की प्रेरणा चामुण्डराय को अपनी माता काललदेवी के भक्तिपूरित संकल्प से मिली। इस अनोखी कल्पना को मूर्तिमान करने की संयोजना का दिग्दर्शन सिद्धांत चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्राचार्य जी ने किया।भगवान बाहुबली प्रथम कामदेव, आयुर्वेद विशेषज्ञ तथा स्त्री-पुरूष लक्षण तंत्र के ज्ञाता थे। उनका शरीर ही नहीं मन-मस्तिष्क और भावना भी उदात्त थी और इसकी प्रतिक्रिया उनके कर्त्तत्व में अभिव्यक्त हुई थी। अतः कलाकार उस आदर्श को उनकी अनुकृति में साकार करना चाहता था। सफल कलाकार स्वयं की भावना से दर्शक के भावों को जोड़ लेता है, यह उसकी कुशलता का द्योतक होता है, जहां कृति के बाह्य लावण्य से सामन्यजस्य स्थापित होता है।
काललदेवी की भक्ति, चामुण्डराय की शक्ति और श्री नेमिचंद्राचार्य जी की प्रेरणा के संगम से ‘विन्ध्यगिरी’ पर विश्व विजेता बाहुबली के विराट् बिम्ब के निर्माण की भूमिका बनते ही कर्नाटक के जनमानस ने उनके व्यक्तित्व में अपने आदर्श का अवलोकन कर लिया। श्रवणबेलगोला की इस पावन धरा पर त्रैलोक्यनाथ की ऐसी लोकोत्तर मर्यादा का सहज निर्वाह यहां सहस्रवर्षों से हो रहा है। लगभग 2300 बर्ष पूर्व उज्जियनी से चलकर अंतिम श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु के बारह हजार मुनियों के विशाल संघ ने जिस धराखण्ड को अपनी साधना-भूमि बनाकर गौरवान्वित किया, वह पुण्य भूमि यही श्रवणबेलगोला की धरती थी। यह तथ्य अपने आप में इस बात को सिद्ध करता है कि उस समय श्री ‘श्रवणबेलगोला’ एक तीर्थ के रूप में तथा जैन साधना के केन्द्र के रूप में इतना विख्यात था कि उसकी कीर्ति मगध तथा उज्जियनी तक गूंजती थी। श्री क्षेत्र की ख्याति और चरित्र निर्वाह के अनुकूल वातावरण की संतृप्ति ही ऐसे विशाल संघ को अपनी ओर आकर्षित करने का केन्द्र बिन्दु बनी रहेगी।
श्रवणबेलगोला के उत्तर में चन्द्रगिरी व दक्षिण में इन्द्रगिरी (विन्ध्यगिरी) पर्वत समुद्र तट से 3347 फुट और आसपास के मैदान से 470 फुट ऊंचा है। यह पर्वत रेतीले ठोस पत्थर (चिकने ग्रेनाईट) का है। चन्द्रगिरी पर्वत समुद्र तल से 3052 और भूतल से 175 फुट ऊंचा ऊपर है। दोनों पर्वत दूर से देखने में मन को लुभाने वाले दिखते हैं। ‘चन्द्रगिरी’ पर्वत पर एक प्राकृतिक गुफा में अपनी एकांत साधना में तल्लीन होकर अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने समाधिमरण कर स्वर्गारोहण प्राप्त किया था।
आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी जी के परम शिष्य ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ ने भी गुरू की समाधि के 12 वर्ष पश्चात् आत्मशुद्धि का तप करते हुए इहलीला संवरण की। जैन तीर्थों के इतिहास में श्रवणबेलगोला एक ऐसा महान क्षेत्र है जो लगभग 2000 बर्षों तक जैन शिक्षा-दीक्षा संस्कृति और सभ्यता का जीता जागता केन्द्र रहा है। सिद्धांत चक्रवर्ती श्री नेमिचंद्राचार्य जी महाराज ने ‘चंद्रगिरी’ को ही अपनी साधना-भूमि बनाकर गौरवान्वित किया। ‘गोम्मटसार’ की रचना पूर्ण करने के उपरांत आपके स्वाध्याय और तत्व चिंतन से जैन आगम की ‘क्षपणसार’, ‘लब्धिसार’ और ‘त्रिलोकसार’ जैसी अमूल्य निधियां प्राप्त हुई।
बाद की शताब्दियों में तीव्रगति से श्रवणबेलगोला का उत्कर्ष होता रहा। विन्ध्यगिरी और चन्द्रगिरि अपने आप में देवायतन की तरह प्रतिष्ठित हो गये। निर्विघ्न तपश्चरण के लिये श्रवणबेलगोला तपोभूमि माने जाने लगा और समाधिमरण पूर्वक जीवन का उत्सर्ग करने के लिये यह पावनधरा सिद्धभूमि की तरह विख्यात हो गई। ग्रंथों और शिलालेखों में उपलब्ध जानकारियों को ह्रद्रयगंम करने पर इस तीर्थ का कण-कण पूज्य और वंदनीय लगने लगता है। श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरी और चन्द्रगिरी ये दोनों ही वंदनीय स्थल हैं और इनके स्मरण मात्र से ही मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है।
यहां मन नहीं बल्कि यहां की प्राकृतिक सुषमा में डूबता या खो जाता है। श्रवणबेलगोला की इस पावन धरा को प्रकृति-नदी ने लीला-धाम ही बना लिया है। यहां जो भी आता है, राष्ट्नायक नेहरूजी की तरह वह विस्मय-विमुग्ध हुए बिना नहीं रहता। आज का विश्व अनेक व्याधियों में, विविध आपत्तियों में निमग्न होकर पीड़ा के कारण कष्ट पा रहा है। वह यदि भगवान गोम्मटेश्वर बाहुबली के चरणों का आश्रय ले , तो उसे प्रभु की मौनी मूर्ति यह उपदेश देगी कि ‘‘यदि तुम्हें शांति चाहिए, तो मेरे पास आ जाओ और मेरे समान जगत के मायाजाल का त्याग कर प्रकृति प्रदत्त मुद्रा को धारण करो। क्रोध, मान, माया, लोभ का परित्याग करो, फिर देखो तुम्हारा दुख दूर कैसे नहीं होता है।
यहां के शिलालेख भव्य, प्राचीन मंदिर और विशाल मूर्तियां न केवल जैन दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, प्रत्युत भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, कला, पुरातत्व और इतिहास की ये सब बहुमूल्य धरोहर है। गोम्मटेश बाहुबली की मूर्ति का स्वयं में एक इतिहास है। साथ ही दिव्य चमत्कारों और भव्य आधि दैविक प्रतीकों से भी उसका अभिन्न सम्बंध है, यह सब धार्मिक आस्थाओं की फलश्रुति हो सकती है परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रवणबेलगोला की यह मूर्ति उदात्त लावण्य युक्त कलाकृति स्वयं में पूर्णता की प्रतीक है। आस्थावना श्रद्धालु ही नहीं कला मर्मज्ञ और सौन्दर्य प्रेमी भी उसे देखते अघाते नहीं।
अलौकिक, अनुपम हैं गोमटेश्वर भगवान बाहुबली :
बाहुबली स्वामी जनता के मन में शौर्य और तपस्या की संतुलित मुनि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। राजा-महाराजाओं के लिए धीर, गंभीर-वीरत्व के आदर्श हैं। अपराजेय हैं। उनका जीवन चरित्र सेनापतियों एवं योद्धाओं के लिए प्रमाण पुरूष है। वे उन आदि महापुरूषों में हैं जिन्होंने आत्मगौरव के लिए अपनी स्वाधीनता के महत्व को स्थापित किया। भगवान बाहुबली दिगम्बर मुनियों के लिए उनकी अदम्य कार्योत्सर्ग मुद्रा अनुकरणीय है। गोम्मटेश्वर बाहुबली की यह मूर्ति यद्यपि दिगम्बर जैन है, परन्तु वह संसार की अलौकिक निधि है, जो शिल्पकला का बेजोड़ रत्न है। यह समग्र मानव जाति की अमूल्य धरोहर है। इस मूर्ति में पाषाण काठिन्य और कलात्मक कमनीयता का मणि-कांचन योग इतना बेजोड़ है, कि एक हजार बर्ष बीत जाने पर भी यह मूर्ति सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृति देवी की अमोघ शक्तियों से बातें करती हुई अक्षुण्ण है। आगे, पीछे, बगल में बिना किसी आश्रय तथा बिना किसी छाया के अवस्थित यह मूर्ति विश्व का आठवां आश्चर्य है। यह कला का चरमोत्कृष्ट निदर्शन है।
भगबान बाहुबलि की यह मूर्ति वर्तमान क्षुब्ध संसार को संदेश दे रही है कि परिग्रह और भौतिक पदार्थों की ममता ही पाप का मूल है। जिस राज्य को जीर्ण-तृणवत् क्षणभर में त्याग दिया। यदि तुम शांति चाहते हो तो मेरे समान निर्द्वन्द्व होकर आत्मरत हो जाओ। यह मूर्ति त्याग, तपस्या और तितिक्षा का प्रतीक है। इस बाहुबली मूर्ति की सुन्दरता अपने आप में अपूर्व ही है। इस मूर्ति का सौन्दर्य अपने आप में इतना विशेष है कि वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियों में यह अनुपमेय है। शिल्पी ने मूर्ति को सर्वांगीण सुंदर बनाने में कोई कमी नहीं रखी है। प्रातःकाल के समय सूर्य की किरणें जब खडगासन प्रतिमा पर फैलती हैं, उस समय बाहुबली भगवान की प्रतिमा की शोभा अलौकिक होती है। गोम्मटेश्वर की मूर्ति मध्ययुगीन मूर्तिकला का अप्रतिम उदाहरण है। विशेषज्ञों का मानना है कि मिस्र को छोड़कर संसार में अन्यत्र इस तरह की विशाल मूर्ति नहीं बनाई गई।श्रवणबेलगोला के योगीश्वर गोम्मेश्वर अपनी शानी नहीं रखते, उनकी सौम्य ध्यानस्थ आकृति का आन्तरिक ऐश्वर्य और निर्दोष मुस्कान अभीष्ट प्रादर्श रहस्यात्मक अद्वितीय ही है। भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला में भगवान बाहुबली अत्याधिक लोकप्रिय तथा आकर्षण के केन्द्र रहे हैं।
यद्यपि भगवान बाहुबली तीर्थंकर नहीं थे फिर भी उनकी मूर्तियों की परंपरा अतीव प्राचीन है, यह उनके अप्रतिम त्याग और तपश्चरण का ही प्रभाव है जो कि आज उनकी मूर्ति की स्थापना से दिगम्बरत्व के गौरव को सर्वतोमुखी कर रहा है और आगे भी करता ही रहेगा। यह गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति भी युग-युग तक असंख्य प्राणियों को मोक्षमार्ग का संदेश सुनाती ही रहेगी।
श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) की पवित्र पावन भूमि पर होने जा रहे इस सदी के दूसरे महामस्तकाभिषेक में अपनी आस्था का एक कलश समर्पित करने के लिए लाखों नयनों का इंतजार बस अब खत्म होने को है, चलों हम भी एक आस्था का कलश समर्पित करने श्रवणबेलगोला पहुंचे।
जय गोमटेश…!
-डॉ. सुनील जैन ‘संचय’