श्रेष्ठ दया का पालन करना मार्दव धर्म – दसलक्षण पर्व


आज उत्तम क्षमा के बाद उत्तम मार्दव धर्म का पर्व दिवस हैं। वास्तव में जीव हर समय कषायों और पापों में अतिरंजित हैं, जब तक हमारे जीवन में समता भाव नहीं आएगा तब तक आत्म दर्शन होना दुर्लभ हैं। पहले चार कषायों का वर्णन में पहले दिन क्षमा यानी क्रोध पर कैसे विजय प्राप्त कर सकते हैं इस पर चर्चा की गई। आज मार्दव धर्म पर चर्चा करना हैं। मान यानी सामान्य शब्द में घमंड करना कितना दुखदायी हैं ,क्यों करते हैं और इसका दुष्परिणाम कैसे होता हैं। जिस प्रकार चिकित्सा शास्त्र में पहले सामान्य स्तर पर जानकारी दी जाती हैं उसके बाद विकृति की जिससे सामान्य से हमारे शरीर में कौन कितनी वृद्धि या क्षय कर रही हैं।

मार्दव धर्म —

जात्यादिमदावेशादाभिमानभावो   मार्दवम माननिरहरणं।

जो मनस्वी पुरुष कुल ,जाति,रूप बुद्धि तप शास्त्र और शीलादिक विषय में थोड़ा सा भी घमंड नहीं करता हैं उसके मार्दव धर्म होता हैं। मृदु का भाव मार्दव हैं। उत्कृष्ट ग्यानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो मद नहीं करता  वह मार्दव रुपी रत्न का धारी हैं। जाति आदि से अभिमान का अभाव मार्दव हैं। लोकभय से अपना ऐहिक कार्यों में बाधा होने के भय से मान न करना सच्चा मार्दव नहीं हैं।
ज्ञान पूजा आदि अभिमान के आठ कारण हैं  इन सबकी उत्तमता प्राप्त होने पर भी मुनियों को अपने कोमल मन,वचन काय से इन आठ मदों का त्याग कर देना चाहिए तथा सब तरह के अभिमानों का त्याग कर कोमल परिणाम धारण करना चाहिए ,यही श्रेष्ठ दया का पालन करने वाला मार्दव धर्म हैं।

किस प्रकार धारण करे मार्दव धर्म —

मैं इस संसार में अनंत बार नीच अवस्था में उतपन्न हुआ हूँ। उच्चत्व व नीचत्व दोनों अनित्य है। अतः उच्चता प्राप्त होकर पुनः नष्ट हो जाती हैं और नीचता प्राप्त हो जाती हैं मुझसे अधिक कुल आदि विशिष्ट लोग जगत में भरे पड़े हैं ,अतः मेरा अभिमान करना व्यर्थ हैं। ये कुल आदि तो पूर्वकाल में अनेक बार प्राप्त हो चुके हैं ,फिर इसमें आश्चर्य युक्त होना क्या योग्य हैं?जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग करके निर्दोष प्रवत्ति करता हैं वही सच्चा मानी हैं ,परन्तु गुण रहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं कहा जा सकता हैं। इस जन्म में और पर-जन्म में यह मान कषाय बहुत दोषों को उतपन्न करती हैं ,ऐसा जानकार सत्पुरुष मान का निग्रह करते हैं। उत्तम मार्दव  धर्म  के  गुण और उसके प्रतिपक्षी  मान कषाय के दोषों का चिंतन करते हुए मुनिराज मार्दव धर्म को धारण करते हैं।

मार्दव धर्म के गुण —–
1. मार्दव धर्म के कारण सज्जनों के समस्त व्रत और शील पूरे हो जाते हैं।
2. इस मार्दव से ही मुक्तिस्री  दृढ आलिंगन देने को तत्पर रहती हैं।
3. योगों की कोमलता से धर्मात्मा पुरुषों के समस्त गुणों के साथ -साथ समस्त सुखों को देने वाला सर्वोत्कृष्ट धर्म प्रगट होता हैं।
4. निराभिमानी और मार्दव  गुणों से युक्त पुरुष /व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता हैं।
5. साधुजन भी उसे साधु मानते हैं।
6. गुरुजनो के अनुग्रह से वह सम्यग्ज्ञानादि का पात्र होता हैं।
7. मार्दव   धर्म से स्वर्ग और मोक्ष सुख की प्राप्ति होती हैं।
8. निरभिमानी मनुष्य स्वजन और परजनों को प्रिय होता हैं।
9. निरभिमानी को जगत में सदा ज्ञान ,यश और धन की प्राप्ति होती हैं                                                    निरभिमानता से वह अपने और भी कार्य सिद्ध कर लेता हैं।

मान के कौन– कौन दोष  हैं —-
1. कुल ,रूप ,आज्ञा ,तप और अन्य पदार्थों से पाने से ऊँचा समझने वाला  मनुष्य नीच गोत्र का बंध करता हैं। अपने से कुलादिक से हीं लोगों को देखकर गर्व करने से पापार्जन होता हैं।
2. मानी से सब लोग द्वेष करते हैं।
3. मानी जन कलह ,वैर ,भय और अनेक जन्मों में दुखों को प्राप्त करता हैं इस लोक एवं परलोक में नियम   से उसका अपमान होता हैं।
4. कठोर परिणामों से समस्त व्रतों का नाश होता हैं एवं निंद्य नरकगति का साधन प्रकट होता हैं।
5. मान से मलिन चित्त में व्रत शीलादि गुण रह नहीं सकते।
6. मानी को साधु जन छोड़ देते हैं। सर्व विपदों की जड़ अहंकार भाव हैं।

कुछ प्राणी पूर्वोपार्जित मान कषाय के पाप से त्रियंच गति को प्राप्त करके हाथी ,घोडा ,ऊंट और गधों में उतपन्न होते हैं। तब उन पर सतत सवारी की जाती हैं ,थोड़ी सी अवज्ञा करते हुए खूब पीड़ा दी जाती हैं और अत्यधिक भार लादा जाता हैं। यह सब उन्हें अनाथ और पराधीन बना देते हैं। मान के कारण ही जीव सूअरों में पैदा होता हैं और अत्यधिक मान करने पर अत्यंत दूषित और कष्टमय श्रेणी में जन्म लेना पड़ता हैं।

अतः हर जीव को पर से ममत्व बुद्धि छोड़नी हैं और रागादि भावों को उपादेय बुद्धि छोड़नी हैं। इनके छूट जाने से मुख्यतः मान उतपन्न ही न होगा विशेषकर अनंतानुबंधी मान तो उतपन्न ही न होगा।

                          मान   महाविषरूप ,करहि   नीच– गति जगत में।
कोमल   सुधा अनूप ,सुख   पावै   प्राणी       सदा।।
उत्तम मार्दव गुण मन माना ,मान करन को कौन ठिकाना।
वस्यो निगोद मांहि तैं आया ,    दमरी रूकन  भाग बिकाय।।
रूकन   बिकाया भाग बशतें ,   देव   इक -इंद्री      भया।
उत्तम    मुआ   चांडाल      हूवा ,  भूप    कीड़ों  में  गया।।
जीतव्य   जोवन धन   गुमान ,कहा  करें   जल -बुदबुदा।
करि   विनय  बहु -गुण बड़े जनकी ,ज्ञान    का पावे उदा।।
इस प्रकार हे प्रभु मुझे मान कषाय का भाव ही न पैदा हों।

 

                           — डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन


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