देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में बसे जैन धर्मावलंबी इस समय आंदोलित है। जैन समाज शांति प्रेमी माना जाता है और वह विवाद और आंदोलनों से दूर ही रहता है, लेकिन अपने पवित्र और शीर्ष तीर्थ क्षेत्र को पर्यटक स्थल घोषित करने की बात पता चलते ही वे आंदोलित होकर सड़को पर आ गए। वे अपने प्रतिष्ठान बंद कर जुलूस निकाल रहे हैं और अमूमन अपने धर्म प्रचार में ही लीन रहने वाले जैन साधु अपने मंच से आक्रमक भाषा बोल रहे है। आखिर इसकी वजह क्या है ? दरअसल जैन धर्मावलंबियों के लिए शिखर से बहुत ही भावनात्मक रिश्ता है। इसके प्रति शुरू से ही बड़ी आसक्ति है। इतनी कि 1918 में एक जैन सेठ ने तत्कालीन राजा से यह पर्वत ही खरीद लिया था, ताकि आगे कोई विवाद न हो सके।
2 लाख 42 हजार में खरीदा पर्वत
सम्मेद शिखर पर्वत जैन समाज के लिए सबसे अधिक श्रद्धा का केंद्र प्रारम्भ से ही रहा है। यह पर्वत शिखर आजादी से पहले पालगंज रियासत में पड़ता था और देश भर से श्रद्धालु यहां पहुंचते थे, लेकिन सबको डर रहता था कि कही इस पर अंग्रेज कब्जा कर इसे पिकनिक स्पॉट ना बना दें, क्योंकि वे पचमढ़ी, उत्तरखंड और हिमाचल की पहाड़ियों को ऐसा कर चुके थे। इस आशंका के चलते पालगढ़ इलाके के एक सेठ ने राजा पालगंज से संपर्क किया और उनसे इस पर्वत को बेचने का प्रस्ताव दिया और इसके पीछे की अपनी पवित्र मंशा भी बताई। आखिरकार बातचीत कारगर हुई और 9 मार्च 1918 को राजा ने इस पर्वत की रजिस्ट्री सेठ आनन्द कल्याण पैडी के नाम कर दी । उन्होंने इसके बदले उस समय 2 लाख 42 हजार रुपए दिए। साथ ही 4 हजार सालाना का भू भाटक हर साल देना तय हुआ।
आखिर जैनियों को इससे इतना लगाव क्यों है
जैन धर्मावलंबियों में इस तीर्थ क्षेत्र को लेकर अत्यंत ही भावनात्मक लगाव है। जैनियों के लिए ये तीर्थ सबसे बड़ा आस्था का केंद्र है। इससे जुड़ी मान्यता है कि यहीं से हमारे 24 में से 20 तीर्थंकर मोक्ष गए और हर जैनी के लिए मोक्ष साधना के लिए यह प्रमुख स्थल है। शास्त्रों में लिखा है कि जो भी व्यक्ति भाव से इस पर्वत पर तीर्थ परिक्रमा करेगा उसे नरक और पशु योनि नही भोगनी पड़ेगी। वह या तो मोक्ष जाएगा या फिर स्वर्ग।
1951 में इसे बिहार सरकार ने कर लिया अधिग्रहित
स्वतंत्रता के पश्चात इस पर्वत को संरक्षण की दृष्टि से बिहार सरकार ने अधिग्रहित कर लिया । इसके बाद से यहां लाखो लोग हर साल तीर्थ परिक्रमा के लिए जाते हैं।
— देव श्रीमाली