गया (बिहार) में समाधी महोत्सव


बिहार के गया शहर में क्षपकराज जी का चल रहा संल्लेखना।

‘बन्धन पंचमकाल है वरना गुरु महान।
पाकर केवलज्ञान को बन जाते भगवान॥’

जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी सुनिश्चित है. तरह तरह के औषध उपचार अथवा मन्त्र तंत्र भी मनुष्य को मरने से बचा नहीं सकते हैं. “जातस्य मरणं ध्रुवं, ध्रुवं जन्म मृतस्य च” जन्म लेने वाले का मरण और मरने वाले का जन्म निश्चित है. इस उक्ति के अनुसार मृत्युकाल सन्निकट आने पर मृत्यु से घबराने के स्थान पर उस जीवन का अनिवार्य/ अटल सत्य मानकार आत्मजागृति के साथ वीरतापूर्वक जीवन को संपन्न करना ही सल्लेखना का उद्देश्य है. जैन साधना भेद विज्ञान मूलक है यहाँ भेद विज्ञान का अर्थ है ऐसा विज्ञान जो मनुष्य को आत्मा और शरीर के अलग-२ होने के सत्य को उजागर करे. शरीर और आत्मा की भिन्नता के अहसास के साथ अपनी आत्मा का शोधन करना ही जैन साधक का परम लक्ष्य होता है।

अंतःकरण में वैराग्य और भेद विज्ञान के साथ किया गया तपानुष्ठान आत्मा के कल्याण का मुख्य कारण है , तपस्या से ही आत्मा में निखार आता है. सल्लेखना भी एक प्रकार की विशिष्ट तपस्या है। ऐसी ही तपस्या आचार्य श्री शीतल सागर जीं के सर्मपक शिष्य मुनी श्री दुर्लभ सागर जी महाराज की चल रही है।

आज नियम सल्लेखना का 45 दिन और यमसल्लेखना का (3) तीसरा दिन।फिर भी उनकी स्मृति और आत्मजागृती देखकर ऐसा लग रहा है। “महावीर नही देखे,कोई गम नही।

गुरुवर तेरी चर्या महावीर से कम नही” सच मे धन्य है उनका त्याग और सर्मपण। गुरु शिष्य का नाता अमर है,।
आज क्षपकराज ने जब माता पिता समान गुरु के गोदी मे बैठने की इच्छा की और स्वयं से गुरुदेव आचार्य श्री के गोदी मे बैठ गये और आत्म चिंतन करने लगे जब चिंतन कर रहें थे। तो शिष्य का समर्पन और गुरु की वात्सल्यता देखकर देखने वाले अपने अस्रु को रोक नही पाए । आज वर्तमान मे ऐसे गुरु शिष्य का वात्सल्य देखने को मिलना दुर्लभ है। ऐसा गुरु का शिष्य प्रति भाव देखकर एक दोहा याद आता है

गुरु गोविंद से है बडे कहते है सब धर्म ।
गुरु सेवा तुम नित करो तजकर सारे कर्म ।


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