धन्य तेरस का जैनशासन में महत्व


कार्तिक कृष्ण तेरस को तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपनी सांसारिक भवों भवों के बंधनों को छेदने के लिए,वर्तमान के जल महल, पावापुरी में योग निरोध धारण किया था जिस कारण यह कार्तिक कृष्ण माह की ” तेरस ” धन्य हो गई थी !हमारे इस हुन्डावसर्पिणी काल के २४ वे, अंतिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर, महावीर सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती और व्युपरत क्रिया निवृति शुक्ल ध्यान में लीन होकर चौदवी गुणस्थान के अंतिम दो समयों में अपनी शेष ८५ कर्म प्रकृतियों का क्षय कर मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यानस्थ हुए थे! इसीलिए हम श्रमण संस्कृति के अनुयायी, वर्तमान में जैन धर्मावलम्बी, धन्य तेरस मनाते है !

इस पर्व का धन/अर्थ से दूर दूर तक का कोई वास्ता नही है ,यह तो अन्य मतियों की देखा देखी हम में से कुछ लोगोने इस में धन से संबंधित कर, धन तेरस पर कोई स्वर्ण की वस्तु खरीदने से जोड़ दिया है जो की जैन मान्यताओं के सर्वथा विपरीत है !हमारे यहाँ तो कश्मी का पूजन भी लक्ष्मी (धन) के रूप में दीपावली पर निषेध है ,हम यदि पूजते है तो मोक्ष लक्ष्मी के रूप में पूजते है न की धन लक्ष्मी के रूप में ! सरस्वती को पूजते है तो केवल ज्ञान को पूजते है न की सरस्वती देवी को !

हमें ” धन्य तेरस” को अपने भावों की उत्कृष्टतम विशुद्धि रखते हुए भगवान महावीर के २५४० वर्षों पूर्व के योग निरोध के दृश्यों का चिंतवन करते हुए मनाना चाहिए जिससे निकट भविष्य में स्वात्म कल्याण की प्रेरणा प्राप्त कर,इस दिशा में पुरुषार्थ कर समुचित निमित्त एवं काललब्धि प्राप्त होने पर, हमे भी निकट भविष्य के किसी भव में मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त हो सके !


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