आध्यात्मिक संत श्रमण श्री सुप्रभसागर जी मुनि एक विलक्षण संत – मुनिश्री के 14वे दीक्षा दिवस 14 अक्टूबर पर विशेष


श्रमण परम्परा अत्यन्त प्राचीन, उन्नत और गरिमामय है। श्रमण-संस्कृति की गरिमा और महिमा युगों-युगों से बड़ी प्रभावक एवं लोकप्रिय रही है। श्रमण संस्कृति के बिना हम भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति के उन्नयन में श्रमण संस्कृति का योगदान गौरवशाली रहा है। आज भी वह प्राचीन श्रमण संस्कृति भारतीय संस्कृति के उन्नयन में अपनी अहम भूमिका का निर्वाह कर रही है। श्रमण संस्कृति की गौरवशाली परंपरा में परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य परम पूज्य श्रमण सुप्रभसागर जी मुनिराज अपनी आगमोक्त चर्या और आध्यात्मिक चिंतन के द्वारा निरंतर आत्मसाधना व प्रभावना में संलग्न हैं। आप श्रमण परंपरा के विलक्षण और तपस्वी संत हैं। आपने समाज और संस्कृति को भी एक नई दिशा दिखाई है।

जन्म : मुनि श्री सुप्रभसागर जी का जन्म जननी मां के जनक नाना के यहां, कोल्हापुर महाराष्ट्र में पिता सद-गृहस्थ श्रेष्ठी राजनशाह , माता सुशील-सरल स्वभावी जननी मां सुरमंजरी की कुक्षि से 13 दिसंबर सन 1981 में हुआ था। श्रमण मुनि श्री सुप्रभसागर जी का गृह ग्राम आध्यात्मिक धर्म नगरी सोलापुर महाराष्ट्र है, जहां एक ओर श्राविका आश्रम है तो दूसरी ओर जीवराज ग्रंथ माला है जहां से संपूर्ण विश्व में जैन साहित्य उपलब्ध कराया जाता है, ऐसी दर्शन- ज्ञान -चारित्र रूपी त्रिवेणी से संपन्न नगर में आपका बाल्यकाल व्यतीत हुआ। गौर वर्ण के शिशु का नामकरण ‘तथा गुण यथा नाम’ की युक्ति अनुसार मनोज्ञ रखा गया। आपकी नाट्यकला को देखकर सर्वजन आनंदित होते थे आपकी बुद्धि अत्यंत प्रखर थी। अतः आप ने अल्प वय में ही सीए तक उच्च शिक्षा प्राप्त की।

आचार्य श्री समंतभद्र जी के मिले संस्कार : आपके ननिहाल पक्ष से सुप्रसिद्ध दिगंबर जैन आचार्य श्री समंतभद्र जी महाराज हुए जिन्होंने खुरई, कारंजा आदि स्थानों पर गुरुकुल स्थापित किए थे। पूर्व संस्कार, पारिवारिक माहौल एवं वर्तमान सत्संगति वसात आपको उगते यौवन में ही जगत के राग -रंग से वैराग्य हो गया।

वैराग्य एवं आचार्य विशुद्ध सागर जी से व्रत ग्रहण : बचपन से ही आप धार्मिक कार्यक्रमों में अग्रणी रहते थे। सदैव धार्मिक माहौल को पसंद करते थे। आपने सन 2007 में गृह का त्याग कर दिया। परम पूज्य आचार्य श्री 108 श्री विशुद्धसागर जी महाराज की चरण निश्रा में छत्रपति नगर इंदौर मध्य प्रदेश में सन 2007 में मार्ग 29 नवंबर को आपने दर्शन प्रतिमा के व्रत ग्रहणकर जीवन पर्यंत के लिए पैंट-शर्ट पहनने का त्याग कर दिया और धवल वस्त्र धारण कर लिए।

इंदौर महानगर से गुरुवर का मंगल विहार हुआ तो ब्रह्मचारी मनोज्ञ जी भी गुरुवर के साथ हर दिन विहार करते रहे, उन्होंने गुरुवर को अपने हृदय में स्थापित कर लिया और गुरुवर भी नए -नवेले ब्रह्मचारी जी को भरपूर वात्सल्य देते ।
वैराग्य दिन- दूना- रात -चौगुना वर्धमान होता रहा ।एक ही चाह एक ही लगन की जैनेश्वरी दीक्षा कब हो! माघ शुक्ला द्वितीया 8 फरवरी सन 2008 को भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव पन्ना में ब्रह्मचारी मनोज्ञ भैया जी ने दूसरी प्रतिमा के बारह व्रतों को उत्साह पूर्वक धारण किया।

इस मध्य आचार्य विशुद्ध सागर जी ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन अपने प्रिय ब्रह्मचारी मनोज्ञ जी को कराया । सन 2008 का वर्षायोग आचार्य विशुद्ध सागर जी ने संस्कारधानी जबलपुर मध्य प्रदेश में संपन्न किया। 24 अगस्त 2008 को ब्रह्मचारी मनोज्ञ भैया जी का प्रथम केशलोंच संपन्न हुआ।

मुनि दीक्षा : ब्रह्मचारी भैया मनोज्ञ जी शीघ्र- अतिशीघ्र दिगंबर मुद्रा को धारण करना चाहते थे। आचार्य श्री 108 श्री विशुद्ध सागर जी ने बैरागी के वैराग्य का परीक्षण कर मध्यप्रदेश के अशोकनगर में सन 2009 अक्टूबर की 14 तारीख को भव्य समारोह में अपार जनसमूह के मध्य ब्रह्मचारी भैया जी को जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान की। आपका नामकरण श्रमण मुनि सुप्रभसागर किया गया । इसके उपरांत आप लगभग 6 वर्ष तक अपने दीक्षा गुरु के साथ रहकर धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते रहे।

मध्य में असाता कर्मोदय के कारण अंतराय और शारीरिक पीड़ा को समता पूर्वक सहन करते रहे। जैसे स्वर्ण अग्नि में तप कर ही चमकता है वैसे ही आपने रोगों को सहनकर अपने दृढ़ वैराग्य एवं आंतरिक समत्व भाव का परिचय दिया ।

उपसंघ : अपने शिष्य की प्रतिभा को परख चुके आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने आपको धर्म प्रभावना के लिए प्रेरित किया फलतः सन 2016 छिंदवाड़ा से आपका पृथक उप- संघ बना। तब से अब तक आप नगर -नगर, गांव- गांव में पग विहार कर धर्म की प्रभावना कर रहे हैं । आप स्वभाव से ही शांत हैं। बड़ों के प्रति अतीव वात्सल्य की धार अनवरत बहती ही रहती है। आप अत्यंत वात्सल्यमयी हैं। एक सच्चे गुरु के सभी गुण आप में विद्यमान हैं

तप- साधना अनूठी : आपकी तप- साधना भी अनूठी है। कभी रसी से आहार, कभी नीरस। कभी एक अन्न तो कभी ऊँनोदर। कभी दो -दो, तीन -तीन उपवास तो कभी परिपूर्ण मौन साधना ।यथार्थ में आप ज्ञान एवं चर्या में अपने गुरु की प्रतिमूर्ति हैं। निरंतर आत्म साधना, श्रुत-साधना ही आपका ध्येय है । धर्म प्रभावना तो आप भरपूर करते ही हैं।
मुनि श्री सुप्रभ सागर जी की साधर्मियों साधकों के प्रति सेवा भाव भी अनुकरणीय है । धर्म -आत्माओं का स्थितिकारण कैसे करना चाहिए यह मुनिश्री से सीखना चाहिए। आप निरंतर अष्टांग सम्यक्त्व का पालन करते हैं।

प्रवचन शैली मनमोहक: आपकी प्रवचन शैली प्रभावक एवं मनमोहनी है। जब आप धर्म सभा में विराज कर धर्म उपदेश देते हैं तो भक्तजन शांत हो जाते हैं। हजारों -हजार जैन -अजैन आपकी दिव्य वाणी का पान कर अपना अहोभाग्य मानते हैं। आप आध्यत्मिकता से परिपूर्ण ओजस्वी वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। सूत्र वाक्यों में बड़ी से बड़ी बात कह देना आपकी प्रमुख विशेषता है। आप सहज, सरल व कठिन तपस्वी हैं।

मुनिश्री एक श्रुतधर साधक के रूप में अपनी ज्ञानाराधना और शास्त्रानुशासन के संबल से अपने जनकल्याणी और जगतकल्याणी विचारों को आगम के संबल से ऊर्जित होकर साधनातीत जीवन की आत्यंतिक गहराईयों अनुभूतियों और वात्सल्य के संचार से मानवीय चिंतन के सतत परिष्कार में सतत सन्नद्ध होकर जीवन को एक सहज सरल जीने की एक कला हमें बतायी है। श्रमण परंपरा को गौरवान्वित किया है। सक्षम गुरु के सक्षम शिष्य हैं।

सृजन से समृद्ध हुआ साहित्य : आप प्रखर और ऊर्जावान वाणी के लिए तो जाने ही जाते हैं साथ ही अल्प साधना काल में ही बड़ी मात्रा में साहित्य सृजन कर मां जिनवाणी के भंडार और साहित्य जगत के भंडार को बढ़ाया है। आपका साहित्य सभी आयु वर्ग के लिए होता है इसलिए लोग आपकी प्रत्येक रचना को हाथोंहाथ लेते हैं। आपके साहित्य सृजन में कुछ इस प्रकार से है- सुनयनपथगामी, शुभ -लाभ , अहं या वहं, एक भ्रम,भवितव्यता, किसने लिखा।

काव्य रचना के प्रति भी आपकी गहरी रुचि होने से आपकी लेखनी से अनेक काव्य रचनाएं भी निरंतर प्रसूत हो रहीं हैं जिनमें सोच , सुगुरु विशुद्धाष्टकम (संस्कृत), सोच नई। आपकी कृतियों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है , जिनमें प्रमुख हैं- स्वानुभव तरंगिणी (मराठी), पंचशील सिद्धांत (मराठी), नियम देशना (मराठी), सुनयनपथगामी ( मराठी एवं अंग्रेजी)। आपके साहित्य सृजन से साहित्य का भंडार समृद्ध हुआ है।

बहु भाषाविद : श्रमण मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज का जन्म महाराष्ट्र में हुआ है। मातृभाषा मराठी, लौकिक शिक्षा सीए होने पर भी संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, कन्नड़, अंग्रेजी आदि भाषाविद हैं। बुंदेलखंडी भी खूब बोलते हैं।आपकी प्रवचन शैली मन को मोहने वाली है। मातृभाषा मराठी होने के बाद भी हिंदी भाषा अच्छी है। भाषा सौष्ठव अनूठा है।

समीचीन विकल्पों का सम्यक समाधान : मुनिश्री समीचीन विकल्पों का आगमोक्त सम्यक समाधान निरंतर करके जिज्ञासाओं की पिपासा को शांत कर उन्हें प्रशस्त मार्ग दिखा रहे हैं। एक कार्यक्रम 2020 में ललितपुर चातुर्मास के दौरान प्रारंभ हुआ था। इतने अल्प समय में यह कार्यक्रम लोगों का पसंदीदा कार्यक्रम बन गया है इसका कारण है मुनिश्री प्रत्येक प्रश्न का समाधान आगमोक्त व सरल, सहज भाषा में करते हैं। पारस चैनल व यूट्यूब चैनल पर सैकड़ों लोग ऑनलाइन के माध्यम से लाभ प्राप्त कर रहे हैं। मेरा सौभाग्य रहा कि इस कार्यक्रम के शुरुआती दौर से ही मुझे जुड़ने का सुअवसर मिला।

विद्वानों के प्रति वात्सल्य : मुनिश्री का विद्वानों के प्रति हमेशा अतीव वात्सल्य भाव देखने को मिलता है। जब भी कोई विद्वान उनके समीप पहुंचा वह हमेशा उसे प्रमुखता देकर तत्त्व चर्चा करते हैं। मड़ावरा व सागर में विद्वानों की दो संगोष्ठी भी आपके सान्निध्य में प्रभावना पूर्वक सम्पन्न हो चुकी हैं जिसमें पधारे देश के मूर्धन्य विद्वान भी आपकी आगमोक्त चर्या व प्रभावक प्रवचन शैली, आपके वैदुष्य से प्रभावित हुए हैं।

विद्वत संगोष्ठियां : आपके सान्निध्य में मड़ावरा आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी व्यक्तित्व एवं कृतित्व एवं सागर में सुनयनपथगामी अनुशीलन राष्ट्रीय विद्वत संगोष्ठी अपूर्व सफलता के साथ सम्पन्न हुई हैं। विदिशा में 3 से 5 अक्टूबर तक शुभ-लाभ अनुशीलन राष्ट्रीय विद्वत संगोष्ठी सफलता पूर्वक संपन्न हुई ।

साधना शिविरों से जुड़ा युवावर्ग : मुनिश्री के सान्निध्य में प्रतिवर्ष दसलक्षण महापर्व के अवसर पर आयोजित साधना शिविर में बड़ी संख्या में युवक-युवतियां सम्मिलित होकर नैतिक संस्कारों से जुड़ती हैं। दस दिन में मुनिश्री द्वारा दिए गए अनेक जीवन उपयोगी सूत्रों से युवावर्ग लाभान्वित होता है। आपकी सरल, सहज बोधगम्य भाषाशैली के कारण युवा वर्ग आपकी ओर खिंचा चला आता है। युवा वर्ग को धर्म, संस्कारों, संस्कृति से जोड़ने की अनूठी पहल करते दिखाई देते हैं।

पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं : जहाँ आप युवा वर्ग को धर्म, संस्कारों, संस्कृति से जोड़कर जीवंत प्रतिमाएं तैयार कर रहे हैं वहीं आपके सान्निध्य में अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं के माध्यम से पाषाण को संस्कारित कर भगवान बनाया गया है। पिछले वर्षों में मड़ावरा, सौरई, रमगढ़ा, बानपुर, परासिया छिंदवाड़ा आदि में सफलतम पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव संपन्न हुए हैं।

त्रय मुनिराजों का आपस में वात्सल्य : मुनि श्री के साथ परम पूज्यमुनि श्री प्रणत सागर जी हैं जिनकी जन्मभूमि ललितपुर नगरी है, मुनिश्री मनोज्ञ, ध्यानी, सरल-स्वभावी हैं। मुनि श्री सौम्य सागर जी अपने नाम के अनुरूप सौम्यता लिए हुए हैं। त्रय मुनिराजों का आपस में वात्सल्य एवं समन्वय भी आज के परिपेक्ष्य में अनुकरणीय व स्तुत्य है। मुनिश्री सान्निध्य में विगत वर्ष में कुछ समाधियां भी सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई हैं।

दोनों बेटे संयममार्ग पर: श्रेष्ठी राजनशाह जी एवं सुरमंजरी जी के दो बेटे हैं और दोनों संयम मार्ग पर चल रहे हैं। मनोज्ञ जी मुनि श्री सुप्रभ सागर जी के रूप में दिगम्बर परंपरा को गौरवान्वित कर रहें हैं वहीं द्वितीय पुत्र साकेत भैया जी बाल ब्रह्मचारी के रूप में इस मार्ग पर चल रहे हैं। दोनों उच्च शिक्षित हैं। एक सीए तो दूसरे इंजीनियर जैसी उच्च लौकिक शिक्षा प्राप्त हैं। पंचमकाल में बहुत कम यह देखने मिलता है कि सभी पुत्र संयम मार्ग पर चल रहे हों। यह निश्चित ही उच्च संस्कारों की परिणति है।

विदिशा में 14वां दीक्षा दिवस : मुनि श्री का मङ्गल चातुर्मास धर्म नगरी विदिशा मध्यप्रदेश के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर स्टेशन में विविध प्रभावनामयी आयोजनों के साथ चल रहा है। 14 अक्टूबर को विदिशा में मुनिश्री का 14वां मुनि दीक्षा दिवस विविध आयोजनों के साथ अगाध श्रद्धा पूर्वक मनाया जाएगा, जिसमें मुनिश्री के भक्तगण दूरस्थ स्थानों से भी सम्मिलित होंगे।

अनासक्त, अपरिग्रही और सतत ज्ञान आराधक : आपके प्रवचन आगमोक्त होते हैं । अपने प्रभावी प्रवचनों के माध्यम से आदमी के जीवन में मिठास घोलने का अथक प्रयास किया है। भाषा समिति का परिपालन करते हैं । चर्या के धनी हैं। आपके ज्ञान -चरित्र- तप की प्रभावना सारे देश में फैल रही है । अनासक्त,अपरिग्रही और सतत ज्ञान आराधक मुनि श्री भारत की गरिमामई श्रमण संस्कृति, संत -परंपरा और आध्यात्मिक अवधारणाओं के जीवंत प्रतीक हैं। जैन आगम के गूढ़ ग्रंथों का स्वाध्याय कर मुनिश्री ने सहज व सरल भाषा में श्रावकों तक पहुंचाया है । जैन आगम का बोध कराया है। मुनिश्री के साधनामयी तेजस्वी जीवन को शब्दों की परिधि में बांधना संभव नहीं है । यह सूर्य को दीपक दिखाना और सिंधु को बिंदु जैसा है ।

विदिशा में प्रभावना : आगम ग्रंथों में विदिशा नगरी भद्दलपुर के नाम से प्रसिद्ध है , जहां भगवान शीतलनाथ स्वामी के त्रय कल्यापक हुए , जिस नगरी में आचार्य समतभद्रस्वामी ने जैनत्व का शंखनाद किया , ऐसी वह पावन धरा विदिशा,इस वर्ष चार माह तक वर्षायोग में ‘ सुप्रभ – उवाच ‘ से परिपूरित हो रही है । अनेक आयोजननों से निरंतर प्रभावना हो रही है।

शुभ-लाभ अनुशीलन त्रिदिवसीय राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी : परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य परम पूज्य श्रमण मुनि श्री सुप्रभसागर जी महाराज, मुनि श्री प्रणत सागर जी महाराज, मुनि श्री सौम्य सागर जी के सान्निध्य में चातुर्मास के मध्य शुभ-लाभ अनुशीलन त्रिदिवसीय राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन विदिशा में स्टेशन के पास स्थित शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में 3 अक्टूबर से 5 अक्टूबर 2022 तक किया। संगोष्ठी के निर्देशक डॉ श्रेयांस जैन बड़ौत, संगोष्ठी का संयोजक मैं (डॉ सुनील जैन संचय ललितपुर) रहे। उक्त संगोष्ठी एकीभाव स्तोत्र पर मुनि श्री सुप्रभसागर जी महाराज की प्रवचन कृति शुभ-लाभ पर केंद्रित थी। संगोष्ठी में देश के प्रमुख विद्वानों ने अपने शोधालेख प्रस्तुत किए। वादिराज जी के एकीभाव स्तोत्र को संगोष्ठी के माध्यम से जन सामान्य ने भी जाना-समझा।

ऐतिहासिक नगरी विदिशा की जैन समाज ने पालक-पावड़े बिछाकर विद्वानों की आवभगत की, बहुमान किया। विद्वानों को जिस तरह से मुनि सेवा समिति के पदाधिकारियों ने स्टेशन पहुँचकर रिसीव किया वह अपने आप में अनोखा अनुकरणीय उदाहरण है, जिसे सभी समाजों को अनुकरणीय है। विद्वान भी एक अमिट छाप लेकर गए। संगोष्ठी सार्थक और अनूठी रही। शोध-पत्रों में विद्वानों ने जहाँ अनेक तथ्यों पर प्रकाश डाला वहीं शोध-पत्र प्रस्तुति के बाद प्रत्येक विद्वानों से हुई जिज्ञासाओं ने अनेक खुलासे भी किए तथा भक्ति के सही रूप को लोगों ने जाना।

संगोष्ठी में पूज्य मुनि श्री सुप्रभसागर जी महाराज के समीक्षात्मक प्रवचन हुए जिससे विद्वत् मनीषी भी मुनिश्री के वैदुष्य से प्रभावित हुए।

दीक्षा कल्याणक को प्राप्त करें : हमारे आराध्य पंच परमेष्ठी में साधु परमेष्ठी को गौरवान्वित कर रहे हैं। आप पांचों पदों को प्राप्त करें और इस दीक्षा दिवस पर उनके चरणों में नमोस्तु करते हुए भावना भाता हूं कि आपका दीक्षा कल्याणक भी हमें मनाने को मिले । 14 वे दीक्षा दिवस 14 अक्टूबर 2022 पर यही भावना भाता हूं कि तपोवर्धन एवं स्व-पर कल्याण के निमित्त आप सदा स्वस्थ रहें, दीर्घायु होकर श्रमण संस्कृति- जैन धर्म की असीम प्रभावना करें और आशीर्वाद प्रदान करते रहें जिससे हम अपने जीवन को ज्योतिर्मय बना सकें।

— डॉ. सुनील जैन संचय


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