अनंत चौदस व्रत कथा


एक बार विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर का समवशरण आया था। राजा श्रेणिक भगवान की वन्दना के लिए वहां पहुंचे। भगवान की प्रदक्षिणा देकर राजा श्रेणिक जैसे ही बैठे । तभी एक रूववान विद्याधर समवशरण में आया और उसने भगवान को नमस्कार करके जय जयकार किया। उसे सुनकर राजा श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने आश्चर्य को प्रकट करते हुए श्रेणिक ने गौतम गणधर से प्रश्न किया- “स्वामिन् ? यह क्या कह रहा है और यह कौन है. मुझे यह बताइये”।

गौतम स्वामी बोले- “विजयनगर नगरी का मनोकुम्भ था और उसकी रानी का नाम श्रीसती था। इनके एक अरिंजय नामक पुत्र था जो बड़ा पुण्यवान् और गुणवान् था। इसने पूर्व जन्म में बड़ा तप किया था, जिसके पुण्य प्रभाव से यह इस जन्म में सुखो का भोग कर रहा था इसके पूर्व जन्म की कथा इस प्रकार है:

कौशल देश में सोम शर्मा नामक एक गुणवान ब्राह्मण रहता था। इसकी सोमिल्या नाम की स्त्री थी, इस ब्राह्मण ने पूर्व जन्म में पाप संचय किये थे इसलिए इसे नगर-२ मारा-मारा फिरना पड़ता था, किन्तु कहीं भी इसे सुख प्राप्त नहीं होता था एक बार एक स्थान पर *अनन्तनाथ भगवान* का समवशरण आया हुआ था। यह ब्राह्मण समवशरण में भगवान के दर्शनार्थ पहुंचा और दर्शन करके पूछने लगा- “हे भगवान ! मैने बड़े भारी पाप किए है, जिससे मुझे यह दुख उठाने पड़ रहे हैं। भगवान् ऐसा उपाय बताइये, जिससे इन दुःखों से मुझे छुटकारा मिले।’ द्विज की बात सुनकर गणधर ने उत्तर दिया- “विप्र तुम अनंत-चौदस व्रत करो” विप्र बोला-“यह व्रत कैसे किया जाता है और इसका क्या विधान है “। गणधर बोले-“भादव शुक्ला चतुर्दशी को स्नान करके भगवान का पूजन करना चाहिए और गुरु को भाव-वंदना करके इस तरह की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। त्रिकाल-जिनेन्द्र पूजन करे । गीत-नृत्य पूर्वक भगवान का अभिषेक करे, रात्रि जागरण करे। इस प्रकार चौदह वर्ष तक लगातार यह व्रत करने के बाद उसका उत्साह पूर्वक उद्यापन में शक्ति पूर्वक शास्त्र दान करें। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दूने व्रत करें।

विप्र ने इसी के अनुसार व्रत किये। इससे उसके सारे दुःखों का नाश हो गया और अपने अन्तिम समय में सन्यास मरण करके वह चौथे स्वग में महद्धिक देव हुआ। वहाँ से चलकर यह अरिन्जय हुआ। उसने ही आकर अभी भगवान को प्रणाम किया है।

एक दिन राजा अपने सिंहासन पर सुख से बैठा हुआ था। तभी उसने देखा कि एक बादल आया और थोड़ी देर में वह छिन्न-भिन्न हो गया। उसे देखकर राजा ने सोचा “अहो ! मनुष्य का जीवन भी इस बादल की तरह क्षणभंगुर और चंचल है, मेरे जीवन का भी क्या भरोसा, कब यह समाप्त हो जाए इसलिए शेष जीवन में तो आत्म कल्याण कर लेना चाहिए, यह सोचकर राजा ने राजपाट पुत्र को सौंपकर स्वयं मुनि दीक्षा ले ली और घोर तप कर कर्मों को नष्ट कर दिया और सिद्ध शिला पर जा विराजमान हुआ । इधर रानी ने भी व्रत धारण किया, जिसके प्रभाव से वह अच्युत स्वर्ग में देव बनी और वहाँ से चलकर राजा बनी। यथा समय उसने भी मुनि दीक्षा लेली और मुक्ति प्राप्त की।

इस प्रकार जो कोई इस व्रत को धारण करता है वह स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करता है।

 


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