माया तो शुभ हो सकती है, पर मायाचारी तो कषाय (पाप)ही है-गुणमति माताजी


केसली -माताजी ने अपने व्याख्यान मे कहा कि पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक पंच पापो का और चार कषायों का  सीमा मे त्यागी होता है l इसलिए ही अणुव्रत का धारक कहलाता है l चारों ही कषायें ही दुःख कर और दुःखदायी है, दुःख रूप ही हैं l अतः त्यागने योग्य ही है l अन्यथा इस भव और पर भव मे कष्ट देने वाली है l क्रोध तुरंत कष्ट देती है तथा खून की भी कमी करती है l क्योंकि पुरानी कहावत है कि गुस्सा मे खून खोलता है और छनकता है l मान मे तो व्यक्ति मर मिटकर भी अपने मान का पोषण करता है l

मायाचारी तो मधुर रस लगी तलवार है l क्योंकि मायाचारी तो मधुर बोल से ही होती है, मीठा बोल तो अच्छा है पर मीठा ठग नहीं ll और लोभ को तो पाप का बाप कहा जाता है l छूटता भी सबसे बाद मे है l इसलिए ही व्रती मिथ्या, माया और निदान से रहित ही कहा जाता है l धन्य राग की महिमा जहाँ राग होता है, वहां मल भी अच्छा लगता है l जैसे माँ अपने शिशु की नाक का मल तो झट से साफ कर देती है पर दूसरे के शिशु को देखकर नाक सिकोडती है l

ध्यान किया नहीं जाता है, ध्यान तो हो जाता है और जब होता है तो होता है l जैसे पनहारीन सिर पर अनेक जल से भरे बर्तन को रखे हुए बातें करते हुए चलती जाती है l बिना भय के पर पूरा ध्यान उन बर्तन ही होता है l यह ध्यान का उत्कृष्ट व्यावहारिक उदाहरण है l ऐसी ही ध्यान सिद्धि ही परम मोक्ष सुख की साक्षात् देने वाली है ll सर्वज्ञाशासन जयवन्त हो, जयवन्त हो श्रमण संस्कृति, महावीर भगवान की जय


Comments

comments