10 साल के सिद्धम बने श्री चंद्रसागर महाराज, पांच सौ श्लोक हैं कंठस्थ, परिवार से यह दसवीं दीक्षा, जानिये खेलने-कूदने की उम्र में कैसे उसके मन में वैराग्य का भाव जागा।


इंदौर। दस साल के सिद्धम जैन को अब श्री चंद्रसागर महाराज के रूप में पहचाना जाएगा। रविवार को सिद्धम की दीक्षा पूरी हो गई और नया नाम मिल गया। अब वह संसार से विरक्त होकर संयम के मार्ग पर चल पड़े है। सिद्धम पांच वर्ष की आयु से ही जैन संत बनने की राह पर चल पड़े थे।

10 साल के बालक सिद्धम ने मुनि श्रीचंद्रसागर बनने के बाद पहला दिन मुस्कुराते हुए साधु जीवन के नियम का पालन करते हुए बिताया। सोमवार सुबह पहली गोचरी सांसारिक मां प्रियंका जैन के हाथों ली। मां ने गोचरी में सांसारिक बेटे के प्रिय रसगुल्ले दिए। उन्होंने बताया कि तीन साल पहले सिद्धम ने संकल्प लिया था कि साधु बनने पर रसगुल्ले को स्पर्श करूंगा, आज उसका संकल्प पूरा होने पर मैंने उसे गोचरी में इसलिए रसगुल्ले प्रदान किए।

इससे पहले श्रीचंद्रसागर महाराज ने साधु जीवन की पहली रात जैन तीर्थ हिंकारगिरी पर बिताई। वहां जमीन पर रात्रि विश्राम कर सुबह 4.15 बजे गणिवर्य आनंदचंद्रसागर सूरीश्वर महाराज ने उन्हें जगाया तो वह तत्काल जाग गए। उसके बाद साधु जीवन की नियमानुसार प्रार्थना, प्रतिक्रमण, मंत्र जाप और मंदिर दर्शन किया। इसके बाद हिंकार गिरी तीर्थ से 9 किलोमीटर का विहार पौने 2 घंटे में कर पिपली बाजार उपाश्रय पर पहुंचे । इस विहार के दौरान वे आनंद के साथ चलते रहे ।इसके बाद सुबह 9 बजे उन्होंने अपने जीवन की प्रथम गोचरी संतों की तरह ली । गोचरी में रसगुल्ले के अलावा दूध, मिठाई, फल भी थे ।

आपको बताते हैं कि कौन है सिद्धम जैन और कैसे खेलने-कूदने की उम्र में उसके मन में वैराग्य का भाव जागा।

सिद्धम जैन मूल रूप से आलीराजपुर के बोरी का निवासी है। पिता का नाम मनीष जैन और माता प्रियंका जैन है। सिद्धम को 500 से ज्यादा श्लोक कंठस्थ हैं। पांच सालों में गुजरात व मप्र के कई शहरों के जैन उपाश्रयों में तप कर चुका है। इसके बाद से ही 15 किमी का पैदल विहार भी किया है। वह बिना पंखे, फ्रिज, मोबाइल, टीवी के रहने आदी हो चुका है। पांच साल की उम्र से ही रात के भोजन का त्याग कर चुका है।

सिद्धम के अनुसार मुझे पांच साल की उम्र में ही संत जीवन की समझ आ गई थी। उपधान में सुबह 4.30 बजे उठना, बिना स्नान किए व कच्चे पानी को छुए हर एक दिन छोड़कर उपवास कर रहा हूं। यह क्रम पांच सालों से चल रहा है। मम्मी-पापा कहते हैं आगे जाकर धर्म की इस परम्परा को खूब आगे बढ़ाना, उन्हें शोभायमान करना। मैं उसी संयम की राह पर चल रहा हूं। दीक्षा लेने से मैं अब छह निकायों के जीवों की हिंसा से बच जाऊंगा, मुझे पाप नहीं लगेगा। दीक्षा वह होती है जो आत्मा का कल्याण करने में अपने को सहयोग करती है। मुझे परम पूज्य बंधु बेलेडी व साधु-साध्वियों से दीक्षा की प्रेरणा मिली। मैं जब पांच साल पहले गुरुजी जैन आचार्य श्री जिनचंद्र सागर सुरीश्वरजी महाराज के पास आया तो संत जीवन की समझ आ गई। मैंने उनके साथ सामयिक रूप से कई चीजें की। इसके तहत 15 किमी का पैदल विहार किया।

इकलौता बेटा है सिद्धम
सिद्धम की मां प्रियंका जैन ने कहा कि सिद्धम इकलौता बेटा है। बेटा अच्छी राह पर जाता है तो इससे खुशी होती है। पति भी यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा कर रहा है। मैं भी बचपन से दीक्षा लेना चाहती थी, उसने मेरी प्रेरणा को पूरा किया। मैं उसे बचपन से ही कहती थी कि यह संयम लेने जैसा है। मैं बार-बार उसे आचार्यजी के पास लेकर जाती थी। दीक्षा मुझे लेनी थी लेकिन मैं नहीं ले पाई तो बच्चे को दिला रही हूं। आज वो संयम के मार्ग पर आगे जा रहा है। पिता मनीष जैन का मानना था कि वह थोड़ा बड़े होने पर दीक्षा लें लेकिन उसने मजबूती से प्रयास किया तो परिवार में सभी ने सहमति दे दी। वह संयम मार्ग पर आगे जा रहा है।यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है।


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