Home Jain News दिगम्बर जैन धर्म में ‘मुनि’ पद मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था : आर्यिका विदुषी श्री

दिगम्बर जैन धर्म में ‘मुनि’ पद मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था : आर्यिका विदुषी श्री

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दिगम्बर जैन धर्म में ‘मुनि’ पद मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था : आर्यिका विदुषी श्री

बंगाईगांव। बड़े बाजार स्थित 1008 शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर में आज शुक्रवार को प्रवचन देते हुए श्रमणि आर्यिका 105 विदुषी श्री ने कहा कि मंदिर समवशरण का प्रतीक है, मंदिर पवित्रता का साधन है, भगवान की मूर्ति दर्पण की तरह है। इसको देखकर हम अपने भीतर के भाव को परिलक्षित कर सकते हैं। भगवान के दर्शन से हमें हमारे भीतर वीतरागता का भाव जागना चाहिए और साधु के दर्शन से हमारे मन के अंदर समता आनी चाहिए।

समाज के प्रवक्ता रोहित छाबड़ा ने बताया कि उन्होंने अपने प्रवचन में आगे व्यक्त्व देते हुए कहा कि हमें मंदिर के भावों को अपने घर तक सुरक्षित रखना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य का जन्म भगवान बनने के लिए होता है, लेकिन वह सांसारिक बनकर रह जाता है और पापों को खोना चाहता है, लेकिन वह खुद पापी बन कर रह जाता है। उन्होंने कहा कि क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को जीतने के लिए भगवान के दरबार में जाते हैं, लेकिन हम मंदिर व धर्म के लिए झगड़ा करने लग जाते हैं। यह मानवता का सबसे बड़ा पतन है, धर्म के क्षेत्र में राजनीति नहीं होनी चाहिए।

अपने प्रवचन में उन्होंने आगे जैन साधु के बारे में बताते हुए कहाँ की जैन धर्म अपनी प्राचीनता संयम व तपष्चरण की परम पराकाष्ठा एवं दिगम्बरत्व रूप के कारण विश्व के अन्य धर्मों में अपनी स्थान विशेषता रखता है। जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्थों में निहित साहित्य को जैनागम कहा जाता है। जैनागम साहित्य में ग्रन्थों के माध्यम से गृहस्थ, श्रावक व मुनि की जीवन चर्चा पर सूक्ष्म से सूक्ष्म बिन्दुओं पर सर्वांगीण रूप से प्रकाश प्राप्त होता है। जैन धर्म को मानने के लिए जाति की सीमा नहीं होती है मात्र आचरण का पालन करना होता है। जैन धर्म के आचरण को पालन करने वाला किसी भी जाति का हो जैन-धर्मावलम्बी के रूप में यम, नियम, संयम व आचरण करने के कारण दिया जाता है।

जैन धर्म के साधु परम्परा को श्रमण कहा गया है। जैन साधु श्रमण भी कहे जाते हैं, जो कोई व्यक्ति जैनधर्म की चर्चा का पालन करना चाहे, करने के लिए वह स्वतंत्र है। गृहस्थ व्यक्ति की प्रथम अवस्था है, श्रावक उससे आगे की एवं मुनि पद साधक की श्रेष्ठ अवस्था है। उन्होंने बताया की मुनि को साधु परमेष्ठी भी कहा गया है, मुनि अवस्था क्या है, मुनि अवस्था की आन्तरिक स्थिति को जानने से पहले, बाह्य स्थिति को जानना आवश्यक है।

उन्होंने कहा की मुनि दिगम्बर रहकर, पैदल बिहारी एवं समस्त परिग्रहों का त्याग करते हुए मात्र तीन उपकरण क्रमश: पिच्छिका (मोर पंख की), कमण्डल एवं ग्रन्थ को अपने पास रखते हैं। वह 24 घंटे में एक बार विधि मिलने पर आहार (भोजन) लेते हैं। उन्होंने कहा की मुनि की इन बाह्य स्थितियों को समझना आपके लिए जरूरी है, मुनि की दिगम्बर अवस्था इस बात का प्रमाण है कि वे यथाजात रूपी अर्थात जैसे जन्म हुआ था वह स्वभाव की मूल अवस्था है जिसमें वे जीते हैं, समस्त प्रकार के परिग्रह को त्याग कर अपने शरीर पर किसी प्रकार के वस्त्र का परिग्रह भी धारण नहीं करते। आर्यिका श्री ने कहा की मुनि की इस शैली पर गम्भीर विचार करने पर यह ज्ञान होता है कि वे मात्र परिग्रह त्याग का जीवन जीकर उत्तम ब्रह्मचर्य के धारक होते हैं, अतएव वही उनका धरती बिछौना और आकाश वस्त्र होते हैं, इसलिए इन्हें दिगम्बर कहा जाता है।

आर्यिका विदुषी श्री ने कहा उनका उपकरण मोर पंख की पिच्छिका जीवों की रक्षा के लिए, वह कमण्डल में जल शुद्धि के लिए एवं स्वाध्याय हेतु जैनागम साहित्य रखते हैं, वही मात्र इन तीन उपकरणों के धारक मुनिराज सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षार्थ पिच्छिका को साथ में रखकर जहाँ पर बैठना है, उठना है या ग्रन्थ आदि खोलना है तो पूर्व में इसके परिमार्जन हेतु इस पिच्छिका का उपयोग करते हुए जीवों की रक्षा करते हैं, एवं इसी प्रकार प्रासुक (शुद्ध) जल कमण्डल में रखते हुए बाह्य शुद्धि के उपयोग में लेते हैं और चिन्तन, मनन व गहन ज्ञान हेतु जैनागम ग्रन्थों को अपने पास रखते हैं जो स्वाध्याय हेतु उपयोगी होता है, दिगम्बर मुनिराज विधि मिलने पर ही आहार लेते हैं।

उन्होनआ कहा आपके मन में प्रश्न आता होगा कि यह विधि क्या है ? आप लोग को बता दुकी : देव-दर्शन के उपरान्त एक विधि (नियम) वे लेते हैं। वे यदि पड़गाहन हेतु जा रहे हैं और उन्हें वह विधि मिल जाती है तो आहार हो जाता है।
24 घंटे में एक बार यह क्रम होता है और यदि विधि नहीं मिली तो वे निराहार अपने स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, सामायिक, प्रतिक्रमण इत्यादि क्रियाओं में लग जाते हैं।

दिगम्बर मुनिराज भीषण ठंड, तपती हुई धूप एवं मुसलाधार बारिश की विषम परिस्थितियाँ रहते हुए संसार के समस्त विकल्पों को त्याग कर आत्मकल्याण, आत्मानुभूति, आत्मान्वेषण के परम लक्ष्य की ओर उन्मुख जीवन शैली को धारण कर अन्तरंग में जिन व्रतों, गुणों व तपों का पालन करते हैं, वह सभ्यता के इतिहास में पठनीय, चिन्तनीय योग्य व मननीय है, उन्होन कहा उन अन्तरंग गुणों पर विचार करना अनिवार्य है जो इस प्रकार है। उन्होंने बताया जैन धर्म गुणवाचक है, यही कारण है कि जैन साधु बहिरंग एवं अन्तरंगगुणों के विकास हेतु सतत् जागृत व साधनारत रहते हैं। उन्होन कहा की जैन मुनियों को आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी भी कहा जाता है और इन्हें अपने पद के अनुसार मूलगुणों का पालन भी करना होता है, इन मुल गुणों के पालन करने के कारण उन्हे महाव्रती व महा-तपस्वी कहा जाता है।

विदुषी श्री ने उनके पालन करने वाले गुणों की व्याख्या करते हुए कहा की आचार्य परमेष्ठी के 36 मूलगुण जिनमें बहिरंग 6 तप एवं अन्तरंग 6 तप, 12 तप का पालन करना होता है, जो इस प्रकार है- अनशन, ऊनोदर, व्रत परिसंस्थान, रस परित्याग, कायकलेश, प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग एवं ध्यान, इन्हीं 36मूलगुणों में पाँच पंचाचार क्रमश: दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, चारित्राचार एवं वीर्याचार तथा १० धर्म क्रमश: उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन व ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है एवं छह आवश्यक क्रमश: समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कार्योत्सर्ग के अतिरिक्त तीन युक्ति क्रमश: मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति की साधना आचार्य परमेष्ठी के लिए आवश्यक है, इसी प्रकार उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी 14 अंग और 14 पूर्व एवं 24 मूलगुण के धारी होते हैं और साधु परमेष्ठी पाँच महाव्रत क्रमश: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के धारक होते है, इन्हें पॉच समितियाँ क्रमश: ईर्या, भाषा, ऐष्णा, प्रतिस्थापना एवं व्युत्सर्ग समिति का पालन करते हुए पांच इन्द्रिय निराध अर्थात, इन्द्रियों को बस में रखना अनिवार्य है। साधु के शेष गुणों में केशलोंच, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, भूमि पर लेटना, दाँतों को नहीं धोना, खड़े होकर हाथ में आहार लेना और दिन में एक बार आहार लेना मुनिजनों की जीवन चर्या होती है।

उन्होंने कहा दिगम्बर जैन मुनि यम, नियम, संयम व तपस्या के प्रमाणिक प्रज्ञापुरूष होते हैं जिनका जीवन अन्तरंग साधना के निरन्त रहता है और जगत कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। भारतीय सभ्यता के इतिहास में श्रमण संस्कृति और श्रमण सभ्यता रेखांकन योग्य वह अध्याय है जो मानव के विकास की धरोहर है। दिगम्बर जैन मुनि साधना व तप के उन प्रमाण पुरूषों में से होते है जिन्हें मात्र दर्शन कर ही जीवन के अंधकार को मिटा सकती है।

उन्होंने अंत में कहा की बारिश (मानसून) के 4 महीनों में (आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक कृष्ण अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन तक) धर्म की रक्षा के लिए जैन साधु विहार आदि नहीं करते। वही स्त्री की मीठी आवाज़, सौंदर्य, धीमी चाल आदि का मुनि पर कोई असर नहीं पड़ता, यह एक परिषह हैं जैसे कछुआ कवछ से अपनी रक्षा करता हैं, उसी प्रकार मुनि भी अपने धर्म की रक्षा, मन और इन्द्रियों को वश में करके रहते हैं।। दिगम्बर साधु जिन्हें मुनि भी कहा जाता है सभी परिग्रहों का त्याग कर कठिन साधना करते है। दिगम्बर मुनि अगर विधि मिले तो दिन में एक बार भोजन और तरल पदार्थ ग्रहण करते है। वह केवल पिच्छि, कमण्डल और शास्त्र रखते है। इन्हें निर्ग्रंथ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है ” बिना किसी बंधन के”।

 

—रोहित कुमार छाबड़ा


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