विद्यार्थियों के लिये जैन सिद्धांतों की उपयोगिता


जैन दर्शन किसी विशेष संप्रदाय की बपौती नहीं हैं, यह सर्व जीवों के लिए हितकारी मंगलदायनी हैं, यह लेख सबके लिए लाभकारी हैं।

छात्रों के लिये जैन दर्शन के सिद्धान्त बहुत उपयोगी मार्ग दर्शन व सम्बल प्रदान करने वाले हैं। छात्रों के लिये अध्ययन में उच्च स्तरीय सफलता बहुत ही महत्वपूर्ण होती है वहीं दूसरी ओर असफलता का भय उन्हें घोर आशंकाओं से ग्रस्त कर देता है। उनकी दूसरी बड़ी समस्या महत्वपूर्ण विषयों में अरूचि या निम्नस्तरीय सफलता होती है। अध्ययन में अरूचि एक बड़ी समस्या है जो छात्रों व उनके आभिभावकों के समक्ष संकट खड़ा कर देती है।

जैन दर्शन के अनुसार इस विश्व में जीव ही एक मात्र ज्ञान दर्शन चेतना सम्पन्न द्रव्य है। आचार्यों ने ऐसा कहा है कि आत्मा ज्ञान ही है, ज्ञान का ही बना हुआ है अत: वह ज्ञान के अतिरिक्त और क्या करे? हम अगर गम्भीरता से विचार करें तो जीव वास्तव में ज्ञान ही करता है, ज्ञान के अतिरिक्त अन्य समस्त कार्य तो जगत के पदार्थो में अनकी अपनी परिणमन योग्यता व गुणों के अनुसार स्वत: ही होते रहते हैं, जीवों में ज्ञान भी उनके क्षयोपशम के अनुसार न्यूनाधिक पाया जाता है तथा यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी का क्षयोपशम एक सा ही हो या जिसे हम महत्व पूर्ण समझते हैं उस विषय में हमारी बुद्धि चले ही।

अत: छात्रों को प्रथमत: यह समझना चाहिये कि ज्ञानार्जन आत्मा की स्वाभाविक प्रवृति है, अत: उन्हें इच्छित विषयों के अध्ययन में मनोयोग से जुटना चाहिये। दूसरी बात, एक विषय में असफलता का अर्थ जीवन की संभावनाओं का अन्त नहीं है। क्योंकि कई बार व्यक्ति किसी एक विषय में असफल होने पर भी किसी अन्य विषय में बहुत अच्छी उपलब्धि अर्जित करते हैं। अन्ततोगत्वा भवितव्य ही व्यक्ति के जीवन की दिशा व दशा तय करता है।

यहां एक बात और भी ध्यान देने की है कि कई बार व्यक्ति का ज्ञान का क्षयोपशम कम होता है और वह स्वयं को मूर्ख समझने लगता है। लेकिन ज्ञान का क्षयोपशम परिवर्तित भी होता रहता है और भविष्य में बढ़ भी जाता है और तब व्यक्ति, जो पूर्व में अल्पज्ञ था भविष्य में बहुत अच्छी शैक्षिक व बौद्धिक उपलब्धियां अर्जित करने में सफल हो जाता है। विश्व ऐसे अनेकानेक उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां प्रारम्भ में व्यक्ति किसी विषय या विधा में कमजोर था और बाद में उसी विषय या विधा में उसने श्रेष्ठ अनुकरणीय उपलब्धियां अर्जित की।

अत: छात्रों के लिये आवश्यकता इस बात की है कि वे वर्तमान की अल्प उपलब्धियों से निराश होने के स्थान पर नियमित व मनोयोग पूर्वक अध्ययन करते रहें। सफलता निश्चित ही उनका वरण करेगी।

उचित आहार विहार व तनाव मुक्ति
यह सर्व ज्ञात तथ्य है कि रोग तनाव को बढ़ाते हैं तथा उचित आहार विहार रोग रहित जीवन का एक प्रमुख कारण है।
हम सभी जानते हैं कि उचित आहार व्यक्ति के शरीर व मस्तिष्क के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। जैन शास्त्रों में खाद्य-अखाद्य पदार्थो का विस्तृत विवेचन किया गया है जो समय व आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरा सिद्ध हुआ है ।
‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन` यह कहावत विश्वप्रसिद्ध है परन्तु यह सदैव ही सत्य नहीं है, परन्तु ‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे तन` यह कथन अधिक उपयुक्त है, क्योंकि भोजन के विभिन्न घटक ही शरीर के विभिन्न अवयवों का निर्माण करते हैं। शरीर की तनाव सहन करने की क्षमता की दृष्टि से उचित आहार-विहार महत्वपूर्ण है।

जैन दर्शन में आहार व्यवस्था का बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। उसके मुख्य बिन्दु निम्न प्रकार हैं:-

१. रात्रि भोजन व बिना छना जल :- अत्यधिक हिंसा का कारण होने से निषिद्ध है साथ ही यह स्वास्थ्य के लिये भी अनुकूल नहीं है। आधुनिक चिकित्सक दिन में भोजन करने की तथा पानी छान कर पीने की सलाह देते है। रात्रि भोजन गैस, ऐसेडिटी, अपचन, कब्ज, आमवात व अन्य कई बीमारियों का कारण है। बिना छने जल से आन्त्रशोथ, पीलिया, अतिसार व अन्य अनेक बीमारियां हो जाती है।

२. जमीकंद :- आलू, गाजर, मूली आदि अभक्ष्य पदार्थो में रखे गये है। समस्त ही जमीकंद पौधो की जड़ो का भाग होने से इनमे नाइट्रीफाइंग बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवों का समूह निवास करता है। इनको लम्बे समय तक रखने पर भी ये अन्य सामान्य वनस्पतियों की तरह खराब नहीं होते तथा इनके विकास मे सूर्य का कोई योगदान नही होने से इन्हें तामसिक भोजन माना गया है। पोषण की दृष्टि से भी इनकी तुलना में भूमि के उपर सूर्य के प्रकाश में विकसित होने वाले फल व सब्जीयां अधिक उपयोगी कहे जाते है। उदाहरण के लिये मूली की जड़ की तुलना में मूली के पत्तों में अधिक पौष्टिक तत्व पाये जाते हैं।

३. द्विदल :- दूध या दही के साथ, दो समान भाग होने वाले खाद्य-दालों आदि का सेवन अभक्ष्य माना गया है। दूध व दालों का एक साथ सेवन विरूद्ध भोजन माना जाता है। (आयुर्वेद शास्त्रों में)

४. मधु:- मद्य व मांस तो प्रत्यक्ष हिंसा जनित उत्पाद होने से निषिद्ध ही हैं। मद्य व मांस के सेवन से होने वाली हानियों के बारे में अनेक अनुसंधान हो चुके हैं। यह सिद्ध हो चुका है कि आज की अनेक धातक बीमारियों का कारण ये पदार्थ हैं।

५. अति भोजन व बिना भूख के भोजन भी शरीर की रोग प्रति रोधक क्षमता को कम करता है तथा उच्च रक्तचाप, हृदय रोग व मधुमेह जैसे घातक रोगों का कारण हैं। (अनिष्ट कारक अभक्ष्य)

६. इसके अतिरिक्त गुटका, पान मसाला, कोल्ड ड्रिंक, फास्टफूड व होटलों का भोजन, संरक्षित खाद्य पदार्थ ये भी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं, इनमें शरीर को क्षति पहुचाने वाले कई रसायनों का प्रयोग किया जाता है। होटलों में कई दिनों का भोजन भी अनेक स्वाद बढ़ाने वाले रसायनों का उपयोग करके ग्राहकों को परोस दिया जाता हैं। जो अन्ततोगत्वा हानिकारक ही होते हैं, इनमें कई पदार्थ कैंसर पैदा करने में भी कारण बनते हैं।

७. चाकलेट, टाफियां व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निर्मित मिठाईयां भी अभक्ष्य ही हैं इनमें कई बार पौष्टिकता बढ़ाने हेतु मांस पाउडर भी मिला दिया जाता है अथवा एलकोहल मिलाया जाता है। इनके रेपर पर निकल की परत होती है जिसके कण लगातार सम्पर्क में रहने से चाकलेट, टाफियों आदि पर चिपक जाते हैं। ये निकल के कण शरीर के लिये अत्यधिक घातक होते हैं।

८. एल्यूमिनियम के बर्तनों का रसोई घरों में बहुत प्रयोग किया जाता है लेकिन एल्यूमिनियम खाद्य पदार्थो के रसायनों से क्रियाकर भोजन में मिल जाता है। यह एल्यूमिनियम शरीर में जाने पर मस्तिष्क की कोशिकाओं पर जम जाता है तथा स्मरण शक्ति को कम करता है। अत: इसके प्रयोग से बचना चाहिये। दूध व खट्टी चीजों को तो इन बर्तनों में बनाना ही नहीं चाहिये।

इसके साथ ही आज अनेक कम्पनियों द्वारा नये-नये उत्पाद प्रभावी विज्ञापनों के साथ बाजार में उतारे जा रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि प्रथम तो बाजार की बनी वस्तुओं का सेवन ही नहीं किया जाय, खाद्य पदार्थ घर पर ही बनाकर उनका उपयोग करना ही पूर्णत: सुरक्षित है, अथवा तो उन उत्पादों की गुणवत्ता उनके घटक द्रव्यों की उपयोगिता, शुद्धता आदि की जानकारी के बाद ही उनका उपयोग किया जाय।

जैसा कि उपर पहले ही कहा गया है आहार की पौष्टिकता व सुपाच्यता ही स्वस्थ शरीर का निर्माण में महत्वपूर्ण कारण है। अत: हमें हानिकारक या अनुपयोगी अनावश्यक पदार्थों के सेवन से बचना चाहिये। ऐसे पदार्थ शरीर की रोग प्रति रोधक क्षमता को कम करते हैं तथा बीमारियों का कारण बन कर तनाव उत्पन्न करते हैं। इस तरह ये पदार्थ शरीर की क्षमता का विकास करने के स्थान पर उसमें ट्ठास का कारण बनते हैं।

यह भी एक सर्वज्ञात तथ्य है कि अधिकतर रोगों का कारण आवश्यकता से अधिक व गरिष्ठ भोजन करना है अत: अपनी स्वाद प्रियता पर अंकुश लगाते हुये जीवन के लिये आवश्यक उतना भोजन करना चाहिये। यह याद रखना चाहिये कि भोजन जीवन के लिये है, न कि जीवन भोजन के लिए।

यह भी एक तथ्य है कि शरीर व आत्मा सदैव ही दो भिन्न जड़ व चेतन द्रव्य हैं। शरीर का रूप रंग सौष्ठव आदि नामकर्म के उदयाधीन बदलता रहता है तथा कितना भी प्रयत्न किया जाय एक दिन यह छूट ही जाता है। अत: आत्म हित को ध्यान में रखते हुये अपनी इन्द्रिय विषयों की इच्छा को नियन्त्रित करते हुये उचित मात्रा में प्रशस्त भोज्य पदार्थों का ही सेवन करना चाहिये। हितकर भोजन स्वास्थ्यकर होने से रोग जनित अनेक तनावों से हमें बचाता है। विषय लोलुपता स्वयं तनाव का कारण है और जैसे-जैसे इच्छाओं की पूर्ति की जाती है वे सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती जाती हैं, उनकी पूर्णत: पूर्ति असम्भव है। अत: जड़ व चेतन की भिन्नता, आत्मा की अनन्न गुण सम्पन्नता का विचार कर विषयेच्छा को घटाना ही अचित है।

एक बात और, विषयों की पूर्ति पुण्य के उदय में ही हो सकती है परन्तु विषयों की पूर्ति में मग्न होना व सुख मानना पाप बन्ध का कारण है जिसके फल में कालान्तर में प्रति कूलता व तज्जनित अनन्त कष्टों को भोगना पड़ता है।

इसके अलावा विद्यार्थी जीवन में काम वासना से जितना दूर रहे उतना अच्छा .वर्तमान में इंटरनेट ,मोबाइल ने सूचना क्रांति दी पर ज्ञान का आभाव होता जा रहा हैं .जैसे भोजन करना और भोजन का पाचन .पाचन हितकारी होता हैं .सादा जीवन उच्च विचार का पालन करे.

आहार = आरोग्यवर्धक हानि रहित
शाकाहार == शांतिकारक हानिरहित
मांसाहार === मानसिक और अशांति कारक
भोजन == भोग से जल्दी नष्ट होना
समय == आत्मा /काल
समय, आहार, विवेक, विज्ञानं का करो विचार,
एकाग्र चित्त, संयम और ज्ञान का करो विस्तार .

— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन


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